Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र रचित नहीं)' वेदों के वाक्यों से ही धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का यथावत परिज्ञान हो सकता है। अतः सर्वप्रथम शुद्ध वेदपाठ स्वरपूर्वक कर लेना चाहिए, तभी धर्म की जिज्ञासा करनी चाहिए । धर्म को जानने का एकमात्र साधन है--चोदनावेद । मीमांसक लोग हवन, यज्ञ, सर्वभूत-अहिंसा, दान आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति कराने वाले वेद-वचन को कहते हैं। वेदवचन के सिवाय कोई भी वर्तमान में विद्यमान पदार्थबोधक प्रत्यक्षादि प्रमाण धर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थ को नहीं जान सकता। इसीलिए धर्म का लक्षण किया है-वेदवचन की प्रेरणारूप ही धर्म है । मीमांसामत में मुक्ति नहीं है। स्वर्ग तक की दौड़ है। कर्मकाण्डों से ही ज्ञान मानते हैं। वेदवचन से ही सारा ज्ञान हो सकता है ।
___कैसा विचित्र मत है। वेद का उच्चारण कण्ठ-तालु आदि के आघात से होता है। वह किसी न किसी साकार पुरुष द्वारा ही हो सकता है ? इसीलिए सर्वज्ञ न मानकर वेद को ही सर्वज्ञ का स्थान देना, एक प्रकार का द्राविड़ प्राणायाम ही है। और फिर कर्म बन्धन से मुक्त होने का तो मीमांसकों के पास कोई उपाय ही नहीं है। उनकी दौड़ स्वर्ग तक ही है, जो पुण्य से प्राप्त होता है, जहाँ से जन्म-मरण का चक्र मिटता नहीं है। अत: मीमांसामत के मिथ्यात्व को तो उनके द्वारा मान्य सिद्धान्त ही कह देते हैं।
अब रहा चार्वाकमत। इसकी नास्तिकता एवं मिथ्यात्व तो लोकप्रसिद्ध है। इस मत का विशेष स्वरूप तो शास्त्रकार स्वयं आगे बताएंगे । यहाँ तो इतना ही कहना है कि चार्वाकमत में शरीर को ही सब कुछ माना गया है। वही आत्मा है, जो यहीं समाप्त हो जाता है, परलोक या पुण्य-पाप आदि कुछ नहीं है । जो कुछ प्रत्यक्ष दीखता है, वही है। यहीं सारा खेल खत्म हो जाता है। बृहस्पति आचार्य अपनी बहन से भी यही कहते हैं---'हे भद्रे ! जितना यह दिखाई देता है, उतना ही लोक है । जैसे मूढ़ मनुष्य भूमि पर अंकित मनुष्य के पैर को ही झूठमूठ भेडिये का पैर बताते हैं, वैसे ही स्वर्ग-नरक आदि की झूठी कल्पना लोग किया करते हैं। सुन्दरि ! उत्तमोत्तम भोजन खाओ और पीओ। जो समय चला गया वह तुम्हारा
१. अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते ।
(वेद) वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥ --कुमारिलभट्ट २. चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः । चोदना हति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाहः ।
-मी० सू० शाब्द भा० ११११२
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