Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समय : प्रथम अध्ययन - द्वितीय उद्देशक
१७१
अनुवाद के समान निराधार हैं ।' क्योंकि ज्ञान के बिना वे कथन भी कैसे कर सकते हैं ?
अज्ञानवादी स्वयं को तथा दूसरों को अज्ञानवाद के अनुशासन में रखने में किस प्रकार असमर्थ हैं, यह दो दृष्टान्तों द्वारा बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं
मूल पाठ
वणे मूढे जहा जंतू
मूढेणेयाणुगामिए ।
दोवि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्छइ ।। १८ ।। अंधो अंध पहं णितो, दूरमद्वाणुगच्छइ । आवज्जे उप्पहं जन्तू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ १६ ॥ संस्कृत छाया
वने मूढो यथा जन्तु ढने अनुगामिकः द्वावप्येतावकोविदौ तीव्र शोकं नियच्छतः
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अन्धोऽन्धं पन्थानं नयन्, दूरमध्वानमनुगच्छति । आपद्यत उत्पथं जन्तुरथवापन्थानमनुगामिकः ॥ १६ ॥
अन्वयार्थ
( जहा ) जैसे (वणे) वन में, ( मूढे) दिशामूढ ( जन्तू) प्राणी ( मूढणेयाणुगाfar) दिशामूढ नेता के पीछे चलता है तो, ( दोवि एए) वे दोनों ही ( अकोविया) मार्ग नहीं जानने वाले हैं, इसलिए (तिब्बं) तीव्र (सोय) शोक - दुःख ( नियच्छइ ) अवश्य ही प्राप्त करते हैं ॥ १८ ॥
(ii) अन्धे मनुष्य को ( पह) मार्ग में (णितो) ले जाता हुआ (अंधो ) अन्धा पुरुष ( दूरं ) जहाँ जाना है, वहाँ से दूर तक (अद्धानुगच्छइ) मार्ग में चला जाता है । ( जन्तू) तथा वह प्राणी (उप्पहं) उत्पथ उजड़ मार्ग ( आवज्जे) पकड़ लेता है या पहुँच जाता है | ( अदुवा ) अथवा ( पंथाणुगामिए) अन्य मार्ग पर चढ़ जाता है या उसके पीछे-पीछे चला जाता है ॥१६॥
भावार्थ
जैसे घोर जंगल में दिशामूढ़ बनकर मार्ग भूला हुआ प्राणी यदि किसी दिशामूढ़ नेता के पीछे चलता है तो वे दोनों ही मार्ग न जानने के कारण मार्गभ्रष्ट प्राणी अवश्य तीव्र दुःख एवं शोक को प्राप्त करते हैं ।
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