Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
स्त्रीपरिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन--प्रथम उद्देशक
५३५
पर मोहित हो गया। मोहित युवक ने ज्यों ही उस स्त्री का हाथ पकड़ना चाहा त्यों ही उसने जोर से चिल्लाकर अपना हाथ छुड़ा लिया और लोगों की भीड़ जमा होने का अवसर देखकर चट से उसके सिर पर पानी का भरा घड़ा उड़ेल दिया । जब आगन्तुक लोगों ने पूछा कि 'तुमने ऐसा क्यों किया ?' तब उसने बनावटी बात बनाते हुए कहा----इसके गले में पानी लग गया था, अत: इसके मरने में जरा-सी कसर रह गई थी। इसकी ऐसी स्थिति देखकर मैंने इसे बचाने के लिए दया लाकर इसको पानी से नहला दिया। सब लोग जब 'बहुत अच्छा किया', कहकर चले गए तब उस स्त्री ने युवक से कहा--- "वैशिक कामशास्त्र पढ़कर तुमने स्त्री स्वभाव का क्या खाक ज्ञान प्राप्त किया है ?" वस्तुत: स्त्री चरित्र दुविज्ञ य होता है। इसलिए पुरुष को, खासकर साधक को स्त्री के स्वभाव पर सहसा विश्वास नहीं करना चाहिए।
मूल पाठ अवि हत्थपायछेदाए, अदुवा वद्धमंसउक्कते अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छियखारसिंचणाई च ॥२१॥
संस्कृत छाया अपि हस्तपादच्छेदाय, अथवा वर्धमांसोत्कर्तनम् । अपि तेजसाऽभितापनानि तक्षयित्वा क्षारसिंचनानि च ।।२१।।
अन्वयार्थ
(अवि हत्थपायछेदाए) इस लोक में परस्त्री के साथ सम्पर्क करना हाथ-पैर के छेदनरूप दण्ड के लिए होता है (अदुवा बद्धमंसउक्कते) अथवा चमड़ी और मांस काटने का दण्ड मिलता है (अवि तेपसाभितावणाणि) अथवा आग से जलने का दण्ड मिलता है। (तच्छियखारसिंचणाई) अथवा अंग काटकर उस पर खार छिड़कने का दण्ड मिलता है।
भावार्थ जो लोग परस्त्रीसेवन करते हैं, उनके हाथ-पैर काट लिए जाते हैं, चमड़ी उधेड़ ली जाती है, मांस नोंच लिया जाता है तथा आग में जलाया जाता है, एवं उनके अंग काटकर उन पर खार छिड़का जाता है। इस प्रकार का भयंकर दण्ड उन्हें इस लोक में मिलता है।
व्याख्या
__ परस्त्रीसंसर्ग का इहलौकिक भयंकर दण्ड इस गाथा में परस्त्रीसंसर्ग करने वाले व्यक्तियों के भयंकर दण्ड का शास्त्रकार उल्लेख करते हैं । यहाँ 'अवि' (अपि) शब्द सम्भावना अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह सभी प्रकार के दण्डों के साथ समझ लेना चाहिए। अर्थात् परस्त्री में मोहित एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org