Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
डाला है, जो राग-द्वषरूप मल से रहित - शुद्ध है, जो सदा इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण रखता है: विषयभोगों में प्रवत्त न होने से स्थितप्रज्ञ या स्थिरचित्त है, वही पुरुष अनुपम भावसन्धि-मोक्षाभिमुखता को प्राप्त करता है ।।१२।।
जो साधक अनन्यसदृश-~-अनुपम संयम या वीतरागप्ररूपित धर्म का मर्मज्ञ है, वह मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी के साथ वैर-विरोध नहीं करता। जो पुरुष ऐसा है, वही दिव्यनेत्रवान या परमार्थदर्शी है ।।१३।।
जो साधक सब प्रकार की विषयभोग आदि की कांक्षाओं का अन्त (समाप्त) करने वाला या जो काक्षाओं के अन्त --सिरे पर है, वही मनुष्यों का नेत्र है-नेता मार्गदर्शक है। जैसे छूरा या उस्तरा अन्तिम भाग (अन्तिम सिरे) से कार्य करता है (चलता है), रथ का पहिया भी अन्तिम भाग (किनारे) से ही चलता है, वैसे ही मोक्षाभिमुख साधक मोहनीय आदि कर्मों का अन्त करके ही संसार के अन्त (पार) तक या मोक्ष के अन्त (किनारे) पर पहुँच जाता है ।।१४॥
परीषहों और उपसर्गों में सहिष्णु या विषयनिरपेक्ष बुद्धि से सुशोभित धीर साधक अन्तप्रान्त (बचे-खुचे ठंडे बासी रूक्ष) आहार का सेवन करते हैं, इस कारण वे संसार का अन्त या समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं । ऐसे ही पुरुष इस मनुष्यलोक में धर्म की आराधना करके संसारसागर का अन्त (पार) कर देते हैं, अथवा धर्माराधना के योग्य होते हैं ।।१५।।
व्याख्या
मोक्षाभिमुख साधकों की साधना का सारांश १०वीं गाथा से लेकर १५वीं गाथा तक विभिन्न पहलुओं से मोक्षाभिमुख साधकों को साधना का सारांश बताया गया है । मोक्षाभिमुखी साधक का अर्थ है --- जिसका मुख मोक्ष की ओर हो गया है, जो अब संसार या संसार के विषय-भोगों, सुख-सुविधाओं, लुभावनी भोगसामग्री, उत्तम स्वादिष्ट आहार, पानी, सुन्दर मकान, शरीरप्रसाधन, साजसज्जा आदि की ओर झाँककर भी नहीं देखता, अर्थात् संसार या संसार के बन्धन में डालने वाले कारणों से विमुख हो गया है, अथवा संसारबन्धन में डालने वाले कर्मों, कर्मों के कारणों- आस्रवों आदि का जिसने अन्त कर दिया है। जो संसारसागर को पार करके मोक्ष के तट पर पहुँच गया है, अथवा उधर ही जिसके पैर सरपट गति से बढ़ रहे हैं, जो दृढ़तापूर्वक मजबूत कदमों से मोक्ष की ओर गति कर रहा है, इधर-उधर संसार की लुभावनी झांकियों को नहीं देखता, जो देहनिरपेक्ष, जीवननिरपेक्ष, प्रसिद्धि, नामना, कामना, पूजा-सत्कार आदि से
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