Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1026
________________ गाथा : सोलहवां अध्ययन अध्ययन का संक्षिप्त परिचय पन्द्रहवें अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब सोलहवाँ अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है। इस अध्ययन का नाम गाहा- गाथा है । यह प्रथम श्रुतस्कन्ध का अन्तिम अध्ययन है । इस अध्ययन में यह बताया गया है कि इससे पहले १५ अध्ययनों में जो-जो बातें कही गई हैं, उनमें से जिनका विधान है, उनका विधिरूप से और जिनका निषेध है, उनका निषेध रूप से पालन करने वाला--यानी उन विधि-निषेवों का उसी तरह आचरण करनेवाला व्यक्ति साधु (उपलक्षण से साध्वी वृन्द भी) हो सकता है। इस अध्ययन में प्रतिपादित अर्थ के साथ पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों की संगति इस प्रकार है-प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित स्वसमय-परसमय का ज्ञान प्राप्त करने से साधु सम्यक्त्वगुण में स्थिर होता है। दूसरे अध्ययन में कहे हुए कर्मों को विदारण करने वाले ज्ञान आदि के द्वारा ८ कर्मों के विनाश में समर्थ साधु होता है। तीसरे अध्ययन में बताये गए अनुकूल-प्रतिकुल उपसर्गों को समभाव से सहन करने वाला साधु होता है । चौथे अध्ययन में बताये गये दुःसह स्त्री-परीषह को जिसने सहन कर लिया है, वही साधु है । पंचम अध्ययन में कही हुई नरक की पीड़ा की सुनकर नरक में ले जाने वाले दुष्कर्मों का जो त्याग कर देता है, वही साधुता को प्राप्त करता है। छठे अध्ययन में यह प्रेरणा दी गई कि जैसे चार ज्ञान के धारक श्रमण भगवान् महावीर ने कर्मक्षय के लिए उद्यत होकर संयमपालन का पुरुषार्थ किया, वैसे ही अन्य छद्मस्थ साधुओं को करना चाहिए । सातवें अध्ययन में यह प्ररूपण है कि कुशील के दोषों को जानकर जो साधक उन्हें त्यागकर सुशील में स्थित होता है, वही सुविहित साधु होता है । आठवें अध्ययन में बताया गया है कि मोक्षाभिलाषी साधकों को बालवीर्य का त्याग करके पण्डितवीर्य के लिए उद्यत होना चाहिए। नौवें अध्ययन में कहा गया है कि शास्त्रोक्त क्षमा आदि श्रमणधर्मों को यथावत् पालता हुआ साधक संसार से मुक्त हो जाता है । दसवें अध्ययन में कहा है सर्वाङ्गीण समाधि से युक्त साधक मोक्ष प्राप्त करता है । ग्यारहवें अध्ययन में बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी उत्तम भावमार्ग को प्राप्त करके साधक क्लेशों का नाश करता है । बारहवें अध्ययन में बताया गया है कि अन्य ६८१ ९८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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