Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
गाथा : सोलहवाँ अध्ययन
९६३
_ 'ठिअप्पा' का तात्पर्य है कि भिक्षु अपने आत्मभावों में स्थिर रहे, खाने-पीने, पहनने आदि पदार्थों का चिन्तन न करे और न ही सांसारिक पदार्थों को पाने की लालसा करे। वह या तो आत्मगुणचिन्तन में लीन रहे या मोक्षमार्ग में स्थिर रहे। यह गण भी भिक्षु के लिए इसलिए अनिवार्य है कि फिर वह आहारादि पदार्थों को लाचारी या निर्बलता के रूप में ही स्वीकार करेगा, वह भी उपकृतभाव से । इसीलिए यहाँ उवद्विए विशेषण का प्रयोग भिक्षु के लिए किया गया है। उसका आशय भी यही है कि भिक्षु अपने सच्चारित्र पालन में उद्यत रहे, उसी का ही ध्यान रखे, चिन्तन करे, शरीर या शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के चिन्तन से मन को हटा ले । 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे' का आशय भी यही है कि भिक्षाचर्यारूप जो चारित्र है, उसे अध्यात्म भावनाओं से ओत-प्रोत व शुद्ध रखे कि “मेरी भिक्षाचर्या अध्यात्मजीवन को पुष्ट करने और रत्नत्रय की आराधना करने के लिए है, शरीर को पुष्ट, बलवान या मोटा बनाने के लिए नहीं।"
साधु जब भिक्षाजीवी है तो उसे आहार, पानी, वस्त्र, धर्मोपकरण, मकान, तख्त आदि सब चीजें भिक्षा से ही प्राप्त होती हैं। ऐसी दशा में साधु को कई जगह २२ परीषहों या देवादिकृत उपसर्गों में से किसी भी परीषह या उपसर्ग से वास्ता पड़ सकता है। आहार, वस्त्र, उपकरण, मकान आदि न मिलने, अनुकल न मिलने या अन्य कोई उपद्रवादि रूप परीषहों या उपसर्गों का सामना करने का अवसर आए तो तपस्वी साधु उस समय अपनी सहिष्णुता का परिचय दे । इस दृष्टि से इस सूत्र में बताए गए सभी विशिष्ट गुण होने पर उस साधक को भिक्षु कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
मूल पाठ एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए, आयवायपत्ते विऊ दुहओ वि सोयपलिच्छिन्न णो पयासक्कारलाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवन्ने समियं चरे दंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथेत्ति वच्चे ॥ सूत्र ५ ॥ से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो।
त्ति बेमि॥ संस्कृत छाया अत्राऽपि निर्ग्रन्थः एकः एकविद् बुद्धः संच्छिन्नस्रोता: सुसंयतः, सुसमितः सुसामायिक: आत्मवादप्राप्तः विद्वान् द्विधाऽपि स्रोतः परिच्छिन्नो नो पूजासत्कारलाभार्थी धर्मार्थी धर्मविद् नियागप्रतिपन्नः समतां चरेद्दान्तो द्रव्यो व्युत्सृष्टकायो निर्ग्रन्थ इति वाच्यः ॥सूत्र ५।। तदेवमेव जानीत यदहं भयत्रातारः ।
इति ब्रवीमि ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org