Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1037
________________ ६२ सूत्रकृतांग सूत्र फलों को भी वह स्वयं तोड़कर नहीं लेता, और न किसी सूने घर में या रास्ते में पड़ी किसी के स्वामित्व से रहित वस्तु को उठाता है या उसका उपयोग या उपभोग करता है । वह जब भी कोई चीज लेगा भिक्षावृत्ति के द्वारा भिक्षा के अपने नियमानुसार प्राप्त और दूसरे के द्वारा प्रसन्नतापूर्वक दी हुई वस्तु का ही उपयोग या उपभोग करेगा । इसीलिए भिक्षु का सबसे बड़ा गुण यहाँ बताया है - ' परदत्तभोई' किन्तु 'परदत्तभोजिता' का अर्थ यह नहीं है कि जैनभिक्षु का भिक्षा का पेशा या धन्धा हो । ऐसा करने वाला दीन-हीन बन जाएगा, उसकी तेजस्विता समाप्त हो जाएगी, उसे भिक्षा लेने का अधिकार उसकी स्वपरकल्याण की या मोक्ष की साधना को लेकर है । जब कोई व्यक्ति भिक्षा को अपनी आजीविका का साधन या अधिकार की वस्तु बना लेता है तो उसमें अभिमान आ जाता है, वह उद्धत होकर दूसरों पर धौंस जमाने लगता है, अगर उसे भिक्षा न दोगे तो वह श्राप या अन्य अनिष्टकारक विधि से उसका अनिष्ट कर देगा, इस प्रकार की धमकी देने लगता है, अथवा जब उसे भिक्षा नहीं दी जाती है या नहीं मिलती है तो वह उन गृहस्थों को अपशब्द कहने लगता है, भला-बुरा कहने लगता है या उसे या उस गाँव या नगर को कोसने लगता है, यह स्थिति सर्वसम्पत्करी भिक्षाजीवी भिक्षु के लिए उचित नहीं है, इसीलिए यहाँ भिक्षु के चार विशिष्ट गुण दिये हैं, जो भिक्षा करने के साथ-साथ उसमें आने जरूरी हैं - 'अणुन्नए विणीए नामए दंते' यानी भिक्षु में भिक्षाजीविता के साथ-साथ निरभिमानिता या अनुद्धतता ( द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से ), विनीतता, नम्रता और इन्द्रिय- मनोविजयिता होनी अनिवार्य है । वह शरीर से भी अक्खड़पन न जताए तथा मन में भी उद्धतता या गर्व न लाए। न किसी गृहस्थ पर धौंस जमाए, न श्राप आदि अपशब्दों का प्रयोग करे । भिक्षा कभी न मिली या देर से मिली तो मन में भी रोष, द्वेषभाव न लाए। और यह सोचे कि आत्मा तो निराहारी, निर्वस्त्र एवं उपाधिरहित है । मैं जितना भी हो सके, इस शरीर के प्रति ममत्व छोड़कर निःस्पृह, निरपेक्ष, सहायतारहित बनूँ । इसी दृष्टि से यहाँ वोसकाए, संखाए, ठिअप्पा और उवट्ठिए ये चार विशिष्ट गुण भिक्षाजीवी साधु के दिए हैं। व्युत्सृष्टकाय ( शरीर पर से अपनी आसक्ति का उत्सर्ग करने वाला का रहस्य ऊपर दिया जा चुका है । संखाए का रहस्यार्थ यह है कि साधु अपने शरीर के स्वभाव का चिन्तन करे कि इसमें जितना भी भरा जाता है, वह मल के रूप में निकल जाता है, फिर सरस, स्वादिष्ट, औद्दे शिक आहार से सात्त्विक एवं कल्पनीय - एषणीय आहार से इसे क्यों न भरू ? शरीर को तो जैसे चाहो वैसे रखा जा सकता है, थोड़े-से सादे सात्त्विक आहार से भी शरीर निभ सकता है । मेरा धर्म है कि मैं शरीर को लेकर पराधीन न बनूं या कम से कम पदार्थों से अपना काम चलाऊँ । यह गुण भिक्षाजीविता के साथ बहुत ही उपयोगी है । भरने के बजाय सादे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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