Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1035
________________ ६६० सूत्रकृतांग सूत्र रहना श्रमण के लिए आवश्यक बताया हैं । समण का एक रूप होता है 'शमन' | जो कषायों या राग-द्वेष का शमन करता है, वह शमन है । इसीलिए यहाँ क्रोध से लेकर रागद्वेष तक के विकारों का शमन भी श्रमण के लिए आवश्यक बताया है । इसके अतिरिक्त जो-जो कर्मबन्धन के कारण हैं, उन उन से कर्मक्षयपुरुषार्थी श्रमण दूर ही रहता है । और तीसरा रूप जो समन है, वह सूचित करता है कि श्रमण के जीवन में समभाव होना चाहिए, उसे द्व ेष के कारणों एवं राग या मोह के कारणों से दूर रहकर समत्व में स्थित रहना आवश्यक है । इसलिए 'अपिस्सिए' से लेकर वोका' तक के जो गुण आवश्यक बताए हैं, 'समण' शब्द के तीनों रूपों में आ जाते हैं । अतः ऐसे गुणों से युक्त साधक को श्रमण कहना पूर्णतया उचित है । मूल पाठ एत्थवि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दंते दविए वोसट्ठकाए, संविधुणीय विरूवरूवं परिसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे, उवट्ठिए ठप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खुत्ति वच्चे ॥ सूत्र ॥ संस्कृत छाया अत्रापि भिक्षुरनुन्नतो विनीतो नामको दान्तो द्रव्यो ( द्रविकः ) व्युत्सृष्टकाय: संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा संख्याय परदत्तभोजी भिक्षुरिति वाच्यः ॥सूत्र ४ || अन्वयार्थ ( एत्थवि भिक्खू ) 'मान' और 'श्रमण' शब्द के अर्थ में जितने गुण पूर्वसूत्र में वर्णित हैं, वे यहाँ भिक्षु में भी होने चाहिए । इसके अतिरिक्त यहाँ भिक्षु के लिए जो विशिष्ट गुण हैं, उनका होना भी आवश्यक है | जैसे ( अणुन्नए) अनुन्नत यानी वह अभिमानी न हो, ( विणीए) गुरु आदि या ज्ञान दर्शन - चारित्र आदि के प्रति विनयशील हो, (नामए) सबके प्रति नम्र व्यवहार करता हो, (दंते) इन्द्रिय और मन को वश में रखता हो, ( दविए) मुक्ति प्राप्त करने योग्य गुणों से युक्त हो, (वोसकाए) शरीर के प्रति ममत्व का त्याग कर चुका हो, (विरूवरूवे परिसहोवसग्गे संविधुणीय) नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों का समभाव से सामना करके सहने वाला (अज्झप्पजोग सुद्धादाणे) जिसका चारित्र अध्यात्मयोग से शुद्ध है, ( उवट्ठिए) जो सच्चारित्र के पालन में उद्यत है— उपस्थित है, ( ठिअप्पा ) जो स्थितप्रज्ञ है, अथवा जिसकी आत्मा अपने शुद्धभाव में स्थित है, या जिसका चित्त मोक्षमार्ग में स्थिर है, ( संखाए परदत्त भोई) संसार को असार जानकर दूसरे (गृहस्थ ) के द्वारा दिये गए आहार से जो अपना निर्वाह करता है, (भिक्खूत्ति बच्चे) उस साधु को भिक्षु कहना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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