Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1036
________________ गाथा : सोलहवां अध्ययन ६६१ भावार्थ 'माहन' और 'श्रमण' की योग्यता के लिए जितने गुण पूर्वसूत्रों में वणि हैं, वे सभी गुण यहाँ वणित भिक्ष में होने आवश्यक है । इसके अतिरिक्त ये (आगे कहे जाने वाले) विशिष्ट गुण भी भिक्ष में होने चाहिए। जैसे वह साधू निरभिमानी हो, गुरु आदि अथवा सम्यग्ज्ञानादि के प्रति विनीत हो, सबके प्रति उसका व्यवहार नम्र हो, इन्द्रिय मनोविजेता हो, जो मोक्षप्राप्ति के योग्य गुणों से सम्पन्न हो, जो शरीर के प्रति अनासक्त रहकर परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सह लेता हो, जिसका चारित्र अध्यात्मयोग के प्रभाव से निर्मल हो, जो उत्तम चारित्र-पालन में उद्यत हो, और जो स्थितप्रज्ञ हो, अथवा जिसकी आत्मा अपने आत्मभाव में स्थित हो या जिसका चित्त मोक्षमार्ग में स्थिर हो, तथा जो संसार को नि:सार जानकर दूसरे के द्वारा दिये हुए एषणीय प्रासुक कल्पनीय आहार-पानी (भिक्षान्नमात्र) से अपना निर्वाह करता हो, उसे निःसन्देह भिक्षु कहना चाहिए। व्याख्या इतने गुणों से सम्पन्न ही वास्तव में भिक्षु है त्यागी साधु की भिक्षा भीख मांगना नहीं है, साधु पेशेवर भिखारी कतई नहीं है और न भिक्षा से पेट पालकर शरीर को हृष्टपुष्ट बनाकर आलसी एवं निकम्मे बनकर पड़े रहना है। आचार्य हरिभद्रसुरि के चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में देखें तो जैनसाधु की भिक्षा सर्वसम्पत्करी है, उसकी भिक्षा पुरुषार्थ को नष्ट करने वाली न तो पौरुषघ्नी है, और न ही वह आजीविका भिक्षा है। दूसरी बात यह है कि आध्यात्मिक जगत् में भिक्षा लेने का अधिकार उसी को है, जो अपने जीवन को आध्यात्मिक साधना द्वारा, या रत्नत्रय की आराधना द्वारा उन्नत बनाता हो, जो अनिश तप-संयम में, स्वपरकल्याण में पुरुषार्थ करता हो, वही सच्चे माने में भिक्षु कहलाने योग्य है। इस तथ्य के प्रकाश में जब हम भिक्षु के गुणों की नापतौल करते हैं तो इस सूत्र में बताये गए सभी गुण यथार्थ हैं। एक भी गुण ऐसा नहीं है, जो भिक्षु के लिए उचित और अनिवार्य न हो। भिक्षु स्वपरकल्याण के लिए तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की साधना के लिए अहर्निश आध्यात्मिक पुरुपार्थ करता है। वह अहिंसा की दृष्टि से स्वयं भोजन पकाता या पकवाता नहीं, और अपरिग्रह की दृष्टि से स्वयं मोल नहीं खरीदता, न मोल खरीदा हुआ लेता है, ऐसी स्थिति में वह गृहस्थवर्ग से अपने लिए बनाये हुए आहारादि में से उनके द्वारा दिया हुआ थोड़ा-थोड़ा लेकर अपनी तृप्ति कर लेता है। गृहस्थ के यहाँ बने हुए आहार को भी वह छीनकर, चुराफर, या बिना पूछे उठाकर नहीं लाता और न ही वहाँ से अनेषणीय, अकल्पनीय या सचित्त वस्तु लाता है, वृक्ष आदि पर लगे हुए पके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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