Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1032
________________ गाथा : सोलहवाँ अध्ययन ९८७ करता है, किसी पर क्रोध नहीं करता, न कभी मान करता है, ऐसा साधक ही माहन कहलाने योग्य है। व्याख्या ऐसे साधुओं को 'माहन' क्यों कहा जाए ? पूर्वसूत्र में जम्बूस्वामी आदि द्वारा यह प्रश्न उठाया गया था कि पूर्वोक्त विशिष्ट गुणयुक्त साधु को माहन, श्रमण, भिक्षु या निर्ग्रन्थ क्यों कहना चाहिए ? इसके उत्तर में श्री सुधर्मास्वामी के द्वारा प्रश्न के एक अंश 'माहन' के सम्बन्ध में इस सूत्र में बताया गया है। वास्तव में माहन का तात्पर्य होता है ---किसी भी प्रकार से, किसी भी जीव की, मन-वचन-काया से हिंसा न करना, न कराना और न हिंसा का अनुमोदन करना । राग-द्वेष से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य' तक जो पापस्थान गिनाएँ हैं, उनके सेवन से भावहिंसा तो अवश्य होती है । भावहिंसा द्रव्यहिंसा से भी अधिक भयंकर है । द्रव्याहिंसा बाद में हो, चाहे न हो, घोर कर्मबन्धन तो भावहिंसा से तुरन्त हो ही जाता है । इसलिए उक्त साधक को 'माहन' कहने के पीछे भगवान् का आशय यही है कि वह राग-द्वप से लेकर मिथ्यादर्शन तक जो पापस्थान भावहिंसा के मूल कारण हैं उनसे विरत रहता है। इन सबके अर्थों का स्पष्टीकरण भावार्थ में कर दिया गया है । इसके अतिरिक्त उस साधक को माहन इसलिए कहा जाना चाहिए कि वह पाँच समिति और उपलक्षण से तीन गुप्तियों से युक्त है। ये अष्ट प्रवचनमाताएँ ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग की प्रवृत्ति के समय या मनवचन-काया की प्रवृत्ति के समय अहिंसा-सत्यादि महाव्रतों की रक्षा करती हैं, साधक को सावधान रखती हैं, जैसे मारना हिंसा है, वैसे झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि भी एक तरह से हिंसा है. ---भावहिंसा है। जो साधु पाँच समिति और तीन गुप्ति से सम्पन्न है, वह इस प्रकार की भावहिंसा से दूर है इसलिए उसका माहन पद सार्थक है। फिर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये रत्नत्रय हिंसानिवारण का अमोघ उपायभूत मार्ग है, इससे सुशोभित साधु माहन ही तो कहलाएगा। इसके अनन्तर १. जगत् में कोई पदार्थ नहीं है, कोई भी नित्य नहीं है, न कोई कर्म करता है, न कोई कर्म का फल भोगता है, तथा मोक्ष कोई पदार्थ नहीं है, और उसकी प्राप्ति का कोई भी उपाय नहीं है, ये ६ मिथ्यात्व के स्थान हैं, जो शल्य के समान महाभयंकर हैं, भावहिंसाजनक हैं, माहन इस मिथ्यादर्शनशल्य से निवृत्त है। -सम्पादक २. मा। हन (मत हिंसा करो) इन दो शब्दों से माहन शब्द बनता है, 'हन हिंसा गत्योः ' धातु से 'हन' शब्द बनता है जो हनन करता है, वह हन है, जो हनन नहीं करता वह माहन है। अर्थात् जो किसी प्रकार से हिंसा नहीं करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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