Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1016
________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन ६७१ अन्त भाग ही कार्यसाधक होता है, वैसे ही संसार के या संसार-परिभ्रमण के या विषयकारणभूत कषायरूप मोहनीय आदि कर्मों के अन्त भाग पर या मोक्ष के अन्त (तटीय) भाग पर स्थित होकर ही मोक्षाभिमुख साधक अपना मोक्ष प्राप्तिरूप कार्य सिद्ध करता है। फिर वे मोक्षाभिमुख साधक धीर होते हैं, अर्थात् महासत्त्व होते हैं, वे देवमनुष्य-तिर्यञ्चकृत उपसर्गों या परीषहों को सहने में सक्षम होते हैं, अथवा वे विषय सुखों की इच्छा से बिलकुल रहित होते हैं। ___ अंताणि सेवंति-ऐसे पुरुष अन्तों का सेवन करते हैं। अर्थात् बच्चे-खुचे, रूखे-सूखे, ठंडे, नीरस आहार - अन्तआहार अथवा प्रान्त आहार का सेवन करते हैं, अथवा वे ग्राम या नगर के अन्त-प्रान्त प्रदेश (निर्जन एकान्त स्थान) का सेवन करते हैं, जहाँ उन्हें किसी प्रकार की सुख-सुविधा न मिले, अथवा विषय-कषाय की स्पृहा के अन्त का सेवन करते हैं। इस प्रकार के अन्त-प्रान्त के अभ्यास से वे संसार का अन्त करते हैं, अथवा संसार के कारणभूत कर्मों का अन्त करते हैं। ऐसे मोक्षाभिमुख पुरुष केवल तीर्थक र आदि ही नहीं, किन्तु इस मनुष्य-लोक में या आर्यक्षेत्र में दूसरे मानव भी सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म की आराधना करके कर्मभूमि में संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज होकर सदनुष्ठान की सामग्री पाकर संसार का अन्त करने वाले हुए हैं, होते हैं। यद्यपि इस पंचम आरे में भरतक्षेत्र से मुक्त नहीं होते, लेकिन महाविदेह क्षेत्र से तो बहुत-से मानव सदा ही मुक्त (सिद्ध) होते रहते हैं। मूल पाठ निठियट्ठा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसि, अमणुस्सेसु णो तहा ॥१६॥ अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहियं । आघायं पुण एगेसि, दुल्लभेऽयं समुस्सए ॥१७।। इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मळं वियागरे ।।१८।। संस्कृत छाया निष्ठितार्थाश्च देवा वा, उत्तरीये इदं च तम् । श्रु तञ्च मयेदमेकेपा,अमनुष्येषु नो तथा ।।१६।। अन्तं कुर्वन्ति दु:खानामिहैकेषामाख्यातम् आख्यातं पुन रेकेषां, दुर्लभोऽयं समुच्छयः ॥१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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