Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1022
________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन ९७७ संस्कृत छाया अनुतरं च स्थानं तत्, काश्यपेन प्रवेदितम् यत्कृत्वा निर्वृता एके, निष्ठांप्राप्नुवन्ति पण्डिताः ॥२१॥ अन्वयार्थ (से ठाणे अणुतरे य) वह संयमरूप स्थान सबसे प्रधान है, (कासवेण पवेइए) काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने जिसका वर्णन किया है। (ज किच्चा णिवडा एगे पंडिया निट्ठ पावंति) जिसका पालन करने से जिनकी कषायाग्नि शान्त हो चुकी हैं वे कई पण्डितसाधक संसार के अन्त को प्राप्त कर लेते हैं। भावार्थ काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित संयम नामक स्थान सबसे प्रधान है। जिस संयम की आराधना करके अनेक महापुरुष अपनी कषायाग्नि बुझाकर शीतल बने हैं और वे पापभीरु मुनि संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं। व्याख्या __संयम नामक प्रधान स्थान : संसार के अन्त का कारण इस गाथा में संयम की महत्ता बताई है। जिससे बढ़कर कोई स्थान नहीं है, उसे अनुत्तर कहते हैं, वह संयम नामक स्थान है। काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने इसका कथन किया है। पाप से निवृत्त और ज्ञानादि शुभत्रिया में प्रवृत्त कोई धीर पुरुष उस सर्वोत्तम संयम स्थान की आराधना करके कषायाग्नि को प्रशान्त करके शीतल बने हैं, और अन्त में वे संसारचक्र का अन्त प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् वे जन्म-मरण के अन्तरूप सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । मूल पाठ पंडिए वीरियं लद्ध, निग्घायाय पवत्तगं। धुणे पुव्वकडं कम्म, णवं वाऽवि ण कुव्बई ॥२२॥ ण कुव्वई महावीरे, अणुपुव्वकडं रयं । रयसा सम्मुहीभूया, कम्मं हेच्चा ण जं मयं ॥२३॥ संस्कृत छाया पण्डित: वीर्यं लब्ध्वा, निर्घाताय प्रवर्तकम् । धुनीयात् पूर्वकृतं कर्म, नवं वाऽपि न करोति ॥२२॥ न करोति महावीरः, आनुपूर्व्याः कृतं रयः । रजसा सम्मुखीभूतः कर्म हित्वा यन्मतम् ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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