Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1023
________________ ६७८ अन्वयार्थ ( पंडिए णिग्घायाय पवत्तगं वीरियं लद्ध ) पण्डितपुरुष कर्म का विनाश करने में समर्थ वीर्य को पाकर (पुण्वकडं कम्म धुणे ) पूर्वकृत कर्म का नाश करे और ( णवं वाऽविण कुव्वइ) नये कर्मबन्ध न करे ||२२|| (महावीरे) कर्म विदारण करने में समर्थ धर्मवीर ( अणुपुब्वकडं रयं ) दूसरे प्राणी जो क्रमशः पापकर्म करते हैं (ण कुव्वई) उसे नहीं करता, ( रयसा ) क्योंकि वह पापकर्म पूर्वकृत पाप के प्रभाव से ही किया जाता है । ( जं मयं कम्म हेच्चाण संमुहीभूता) अतः पापकर्म अथवा उसके कारण का त्याग करके जो तीर्थंकर आदि महापुरुषों द्वारा सम्मत और मोक्ष के उपायरूप तप-संयमादि द्वारा आठ कर्मों को नष्ट कर मोक्ष सम्मुख होते हैं । अर्थात् मोक्षप्राप्ति के योग्य आचरण में ही तत्पर रहते हैं ||२३॥ सूत्रकृताग सूत्र भावार्थ पण्डितसाधक कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर्य को प्राप्त करके पूर्वकृत कर्मों को नष्ट करे और नवीन कर्मबन्ध न करे । दूसरे प्राणी मिथ्यात्व आदि क्रम से जो पापकर्म करते हैं, उसे कर्म को विदारण करने में पराक्रमी वीर साधक नहीं करता । पूर्वभवों में कृतपाप के द्वारा ही नये पापकर्म किये जाते हैं । परन्तु वह पुरुष अपने पूर्वकृत पापकर्मों को रोक देता है, और आठ प्रकार के कर्मों को त्यागकर मोक्ष के सम्मुख हो जाता है ।।२२-२३। व्याख्या Jain Education International कमों से मुक्त : मोक्षसम्मुख साधक इन दो गाथाओं में कर्मों को रोकने, क्षय करने, पापकर्मों का सर्वथा त्याग करने और आठों ही कर्मों को त्याग करके मोक्षसम्मुख होने का क्रम बताया है । वास्तव में साधक के लिए समस्त कर्मों से रहित होने का उपाय यही है कि पहले हिताहित विवेक पण्डितमुनि अनेक भवों में उपार्जित कर्मों को विदारण करने में समर्थ वीर्य (शक्ति) प्राप्त करे, अनेक भवों में संचित पूर्वकर्मों का त्याग करे और नवीन कर्मों को रोके यानी आस्रवनिरोध करे। साथ ही वह कर्म को विदारण करने में समर्थ साधक दूसरे प्राणी जैसे मिथ्यात्व आदि के क्रम से पापकर्म करता है, वैसे नहीं करता क्योंकि वह पापकर्म पूर्वभव में कृतपाप के प्रभाव से ही किया जाता है । किन्तु वह महासमर्थं वीर साधक सुसंयम का आश्रय लेकर अपने पूर्वकृत कर्मों को तो दबा देता है, और जीवों द्वारा मान्य ८ प्रकार के जो कर्म हैं, उन सबको त्यागकर वह मोक्ष या सत्संयम के सम्मुख हो जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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