Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
निपुण है या उसका मर्मज्ञ है, वह (मणसा, वयसा चेव कायसा चेव केणइ ण विरुज्झिज्ज मन से, वचन से और काया से किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध नहीं करता, (चक्खुमं) जो पुरुष ऐसा है, वही दिव्यनेत्रवान है, यानी परमार्थदर्शी है।।१३॥
(से हु मणुस्साणं चक्खू ) वही पुरुष मनुष्यों का नेत्र है .. नेता है --- मार्गदर्शक है, (जे य कंखाए अंतए) जो सब प्रकार की (विषयभोग आदि की) कांक्षाओं का अन्त (नाश) करनेवाला है, अथवा कांक्षाओं के अन्त - सिरे पर है। (खुरो अंतेण वहति) जैसे छुरा अन्तिम भाग (अन्तिम सिरे) से कार्य करता (चलता) है, (चक्कं अंतेण लोट्टई) रथ का पहिया भी अन्तिम भाग (किनारे) से ही चलता है -गति करता है ।।१४॥
(धीरा अंताणि सेवंति) परीषहों व उपसर्गों को सहने में धीर, अथवा विषयसुखों की इच्छारहित बुद्धि से सुशोभित साधक अन्त --प्रान्त आहार का सेवन करते हैं, (तेण इह अंतकरा) इसी कारण वे संसार का अन्त कर देते हैं। (इह मागुस्सए ठाणे णरा धम्ममाराहिउं) इस मनुष्यलोक में दूसरे मनुष्य (साधक) भी धर्माराधन करके संसार का अन्त करते हैं ।।१५।।।
भावार्थ जो मोक्षाभिमुखी साधक होते हैं, वे जीवन के प्रति निरपेक्ष होकर कर्मों (ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों) का अन्त पा लेते हैं, यानी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जो पुरुष विशिष्ट तप, संयम आदि के उत्तम आचरण (सदनुष्ठानरूप धर्मक्रिया) से मोक्ष के सम्मुख-से होकर जीते हैं, वे ही मोक्षमार्ग पर आधिपत्य (शासन) करते हैं, अथवा वे ही जीवन्मुक्त साधक मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं ।।१०।।
। उनके द्वारा दी जाने वाली मोक्षमार्ग की शिक्षा या धर्मदेशना भिन्नभिन्न प्राणियों के लिए अभिप्राय, रुचि, योग्यता आदि के भेद से विभिन्न प्रकार की होती है, या वह विभिन्न रूपों में परिणत होती है । इसलिए संयम का धनी, पूजा-सत्कार-प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि आदि में रुचि न रखने वाला, सब प्रकार की विषय भोगों की वासना (आशय) से रहित, संयम में पुरुषार्थ करने वाला, इन्द्रियमनोविजेता, महाव्रत आदि की कृत प्रतिज्ञा दृढ़-अटल, एवं मैथुनसेवन से विरत साधक ही मोक्ष के अभिमुख या मोक्षमार्ग का अनुशासक होता है ॥११॥
सूअर आदि प्राणियों को प्रलोभित करके जाल में फंसाकर मौत के मुंह में पहुँचाने वाले चावल के दाने के समान प्रलोभनीय स्त्रीप्रसंग या अल्पकालिक विषयलोभ में जो वीर साधक लीन नहीं होता, फैसता नहीं, जिसने विषयभोगरूप या संसारागमनरूप आस्रवद्वारों को छिन्न-भिन्न कर
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