Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1010
________________ आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन संस्कृत छाया जीवितं पृष्ठतः कृत्वाऽन्तं प्राप्नुवन्ति कर्मणाम् । कर्मणा सम्मुखीभूता, ये मार्गमनुशासति ॥१०॥ अनुशासनं पृथक् प्राणिषु वसुमान् पूजनास्वादकः । अनाशयो यतो दान्तो दृढ़ आरतमैथुन: ॥११।। नीवार इव न लीयेत, छिन्नस्रोता अनाविलः । अनाविलः सदा दान्तः, सन्धि प्राप्तोऽनीदृशम् ॥१२॥ अनीदृशस्य खेदज्ञो, न विरुध्येत केनाऽपि । मनसा वचसा चैव, कायेन चैव चक्षुष्मान् ॥१३।। स हि चक्षुर्मनुष्याणां, यः कांक्षायाश्चान्तकः । अन्तेन क्षरो वहति, चक्रमन्तेन लंठति ॥१४॥ अन्तान् धीराः सेवन्ते, तेनाऽन्तकरा इह । इह मानूष्यके स्थाने, धर्ममाराधयितु नरा: ॥१५॥ अन्वयार्थ (जीवियं पिट्ठओ किच्चा) ऐसे वीर साधक जीवन को पीठ देकर (पीछे, करके) (कम्मणं अंतं पावंति) कर्मों के अन्त (क्षय) को प्राप्त करते हैं। (कम्मुणा संमुहीभूता) वे पुरुष विशिष्ट कर्म (धर्माचरण) के अनुष्ठान के कारण मोक्ष के सम्मुखीभूत हैं; (जे मग्गमणुसासई) जो मोक्षमार्ग पर स्वयं अनुष्ठान द्वारा अधिकार (शासन) कर लेते हैं अथवा जो मोक्षमार्ग की शिक्षा मुमुक्षुओं को देते हैं ॥१०॥ (अणुसासणं पुढो पाणी) उन मोक्षाभिमुख साधकों का अनुशासन (धर्मोपदेश) भिन्न-भिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। (वसुमं पूयणासए अणासए जए दंते दढे आरयमेहुणो) संयम का धनी, पूजासत्कार में दिलचस्पी न रखने वाला, आशय-वासना से रहित, संयम में प्रयत्नशील, दान्त - जितेन्द्रिय अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ एवं मैथुनसेवन से विरत साधक ही मोक्षाभिमुख होता है ।।११।। (णीवारे व ण लीएज्जा) सूअर आदि प्राणी को प्रलोभित करके फँसाकर मौत के मुह में पहुँचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्रीप्रसंग या अल्पकालिक विषयलोभ में वह लीन नहीं होता, नहीं फंसता । (छिन्नसोए) जिसने विषयभोगरूप आस्रवद्वारों) को नष्ट कर डाला है। (अणाविले) जो राग-द्वषमल से रहित-स्वच्छ शुद्ध है, (सया दंते) जो सदा इन्द्रियों और मन पर काबू करके रहता है, (अणाइले) विषयभोगों में प्रवृत्त न होने से जो स्थिरचित्त है, वही पुरुष (अणेलिसं संधि पत्त) अनुपम भावसन्धि - मोक्षाभिमुखता को प्राप्त कर लेता है ।।१२।। (अनुलिसस्स खेयन्ने) अनन्यसदृश (जिसके समान संसार में और कोई उत्तम पदार्थ नहीं है, वह अनीदृश)-अनुपम संयम या वीतरागोक्त धर्म में जो खेदज्ञ --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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