Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
नरकाधिकार : पंचम अध्ययन-द्वितीय उद्देशक
६१७
अन्वयार्थ (वसोगयं) अपने वश में हुए (सावययं व लख) वन्य पशु के समान मिले हुए नारकी जीव को नरकपाल (तिक्खाहिं सूलाहिं) तीखे शूलों से (निवाययंति) मारते हैं । (सूलविद्धा) शुल से बींधे हुए (दुहओ) अन्दर और बाहर दोनों ओर से (गिलाणा) ग्लान- मुआए हुए (एगंतदुक्खा) एकान्त दुःख वाले नारकी जीव (कलुणं थणंति) करुणस्वर से विलाप करते हैं।
भावार्थ वशीभूत हए जंगली जानवर के समान नारकी जीव को पाकर परमाधार्मिक असुर तीखे शूलों से मार गिराते हैं। शूलों से बींधे हुए तथा अन्दर और बाहर दोनों तरह से ग्लान-उदास एवं एकान्त दुःखी नारकी जीव करुण क्रन्दन करते हैं।
व्याख्या
नरकपालों द्वारा नारकी जीवों पर बरसाया जाता कहर इस गाथा में बताया गया है कि नारकी जीव जब मृग, सूअर आदि पालतू जानवर की तरह परमाधार्मिकों के वशीभूत हो जाता है, तब नरकपाल पूर्वजन्मकृत पापों का स्मरण कराकर उसे तीखे लोह के शूलों से बींध-बींध कर मार गिराते हैं। शूल आदि के द्वारा बींधे हुए भी नारकी जीव मरते नहीं है, किन्तु करुणस्वर से आर्तनाद करते हैं। उन नारकी जीवों का उस समय कोई भी रक्षक एवं सहायक न होने से वे अन्दर और बाहर दोनों ओर से मनमलिन व तन-क्षीण हो जाते हैं। इस प्रकार नारकी सदैव एकान्त दुःख ही दुःख का अनुभव करते हुए करुण विलाप करते रहते हैं ।
मल पाठ सया जलं नाम निहं महंत, जंसी जलतो अगणी अकठो । चिटठंति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरट्ठतीया ।।११।।
संस्कृत छाया सदा ज्वलन् नाम निहं महच्च, यस्मिन् ज्वलन्नग्निरकाष्ठः । तिष्ठन्ति बद्धा बहुक रकर्माणः, अरहस्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥११॥
_अन्वयार्थ (सया) सदैव (जल) जलता हुआ (महंतं निह) एक महान् प्राणिघात का स्थान है, (जंसो) जिसमें (अकट्ठो अगणी) बिना काष्ठ की आग (जलंतो) जलती रहती है । (बहुकूरकम्मा) जिन्होंने पूर्वजन्म में अत्यन्त क्रूर (पाप) कर्म किये हैं, (चिरद्वितीया) तथा जो उस नरक में चिरकाल तक निवास करते हैं, (बद्धा) वे उस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org