Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समवसरण : वारहवाँ अध्ययन
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सकते हैं । अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, प्रारब्ध (कर्म) और पुरुषार्थ इनको पृथक्पृथक् कारण मानना मिथ्यात्व है, परन्तु इनके समूह को कारण मानना सम्यक्त्व है । शेष तीनों एकान्तवादी होने से मिथ्या हैं, परन्तु इन्हीं तीनों को सापेक्षिक मानने से (अमुक अपेक्षा से) कथंचित् अज्ञान, अक्रिया और विनय का अस्तित्व मानना सम्यक् है, परन्तु अन्य अपेक्षा से उनका नास्तित्व मानना उचित है । यों सापेक्षिक ( अनेकान्त ) दृष्टि से मानने पर शेष तीनों बाद भी सम्यक् हो सकते हैं । इसकी क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ
चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाया जाई पुढो वयंति 1 किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ॥ २ ॥ संस्कृत छाया
चत्वारि समवसरणानीमानि, प्रावादुकाः यानि पृथग्वदन्ति । क्रियामक्रियां विनयमिति तृतीयमज्ञानमाहुश्चतुर्थमेव
11211
अन्वयार्थ
(पावादुया) परतीर्थिक मतवादी जाई) जिन्हें ( पुढो वयंति) पृथक्-पृथक् बतलाते हैं, ( चत्तारि इमाई समोसरणाई) वे चार समवसरण - चार वाद या सिद्धांत ये हैं - ( किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणं चउत्थमेव आहंसु ) क्रियावाद, अक्रियावाद और तीसरा विनयवाद तथा चौथा अज्ञानवाद, ये ही चार वाद हैं ।
भावार्थ
अन्य दार्शनिकों ने जिन-जिन वादों (सिद्धान्तों या समवसरणों) को एकान्तरूप से मान रखा है, वे सिद्धान्त ये हैं- क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और चौथा अज्ञानवाद ।
व्याख्या
चार वाद के रूप में चार समवसरण इस गाथा में शास्त्रकार ने अध्ययन के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषय का नामोल्लेख कर दिया है | चार प्रकार के सिद्धान्त मुख्यरूप से विश्व में प्रचलित हैं, उन चारों में संसारभर के मत आ जाते हैं । इसीलिए इन परतीर्थिकमान्य चार वादों की संख्या चार ही है, इसे निश्चयरूप से बताते हैं - ' अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ।' अर्थात् वे सिद्धान्त ४ ही हैं - क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादी । ' क्रिया अर्थात् 'पदार्थ हैं, ऐसा कहने वाले क्रियावादी हैं, तथा 'पदार्थ नहीं हैं,'
१ इनके सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन भूमिका में कर दिया गया है तथा प्रथम अध्ययन में इनका स्वरूप भली-भाँति बताया गया है ।
सम्पादक
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