Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
प्रमाण भी नहीं है, क्योंकि कोई अल्पज्ञ पुरुष प्रत्यक्षप्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकता । अल्पज्ञ का ज्ञान अल्प होने से वह सर्वज्ञ के ज्ञान और ज्ञेय के विज्ञान से रहित है । यदि उसका ज्ञान सर्वज्ञ के ज्ञान और ज्ञेय को भी जानता है तो वह स्वयं सर्वज्ञ हुआ, फिर सर्वज्ञ का अभाव कहाँ रहा ? अनुमानप्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञ के अभाव के साथ अव्यभिचारी कोई हेतु नहीं है । उपमानप्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि सर्वज्ञाभाव के साथ किसी का सादृश्य नहीं है । अर्थापत्तिप्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि अर्थापत्तिप्रमाण की प्रत्यक्षादिपूर्वक ही प्रवृत्ति होती है । और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि न होने से अर्थापत्तिप्रमाण भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं कर सकता । आगमप्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि आगम सर्वज्ञ का अस्तित्व बतलाने वाला भी है । यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और सम्भव, इन पाँच प्रमाणों से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती है, इसलिए यह निश्चित होता है कि कोई सर्वज्ञ नहीं है, यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि सब देश और सब काल में सर्वज्ञ का बोधक (ग्राहक) कोई प्रमाण नहीं मिलता, यह कहना अल्पज्ञ पुरुष के बूते की बात नहीं है, क्योंकि देशकाल की अपेक्षा से जो पुरुष अत्यन्त दूर है, उसका विज्ञान अल्पज्ञ नहीं कर सकता । यदि वह उसका विज्ञान कर ले, तब तो वह भी सर्वज्ञ ठहरता है, फिर सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । स्थूलदर्शी पुरुष का विज्ञान सर्वज्ञ तक नहीं पहुँचता इस कारण भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्थूलदर्शी पुरुष का ज्ञान व्यापक नहीं है | यदि कोई अव्यापक पदार्थ किसी पदार्थ के पास न पहुँचे तो उस पदार्थ का अभाव नहीं हो जाता । इसलिए सर्वज्ञ के अस्तित्व का बाधक कोई प्रमाण नहीं मिलता, प्रत्युत सर्वज्ञ के साधक सम्भव और अनुमान आदि प्रमाण मिलते हैं, इसलिए सर्वज्ञ की सिद्धि होती है ।
उक्त सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगम का स्वीकार करने से मतभेदरूप दोष भी नहीं आता । सर्वज्ञ के द्वारा कथित आगम को मानने वाले सभी लोग एकमत से आत्मा को शरीरमात्रव्यापी मानते हैं, क्योंकि शरीरपर्यन्त ही आत्मा का गुण पाया जाता है । तथा अज्ञानवादी ने पहले जो अन्योन्याश्रय दोष बताया है, वह भी यहाँ सम्भव नहीं है । क्योंकि शास्त्र आदि का अभ्यास करने से बुद्धि के अतिशय ज्ञान का अस्तित्व अपनी आत्मा से भी देखा जाता है, इसलिए प्रत्यक्ष देखी हुई बात में कोई अनुपपत्ति ( बाधा ) नहीं आती ।
व्याकरणशास्त्र में दो प्रकार के नञ्समास होते हैं पर्युदास और प्रसज्य । पर्युदास नञ्समास सदृशग्राही होता है, जबकि प्रसज्य सर्वथा निषेध करता है । अगर अज्ञानपद में पर्युदासवृत्ति मानकर एक ज्ञान से भिन्न उसके सदृश दूसरे ज्ञान को
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