Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
पूजा-प्रतिष्ठा करे । (तं सोयकारी पुढो पवेसे) तथा आचार्य के उपदेश को, आचार्य की आज्ञा का पालन करने वाला शिष्य अपने अन्तःकरण में प्रविष्ट (स्थापित) करे। (इमं केवलियं समाहि संखा) एवं इस (आगे कहे जाने वाले) केवली-प्रज्ञप्त सम्यक्ज्ञानादिरूप समाधि को भली-भाँति जानकर चुपचाप हृदय में स्थापित करे ।।१५।।
(अस्सि सुठिच्चा तिबिहेण तायो) गुरु ने जो उपदेश दिया है, उसमें सुस्थित होकर मन-वचन-काया से समस्त प्राणियों की रक्षा करे। (एएसु वा संति निरोहमाह) समिति और गुप्ति के पालन से हो शान्ति और कर्मों का निरोध (आस्रव निरोधरूप संवर सर्वज्ञों ने बताया है। (तिलोगदंसी ते एवमक्खति) वे त्रिलोकदर्शी पुरुष यह कहते हैं कि (ण भुज्जमेयंतु पमाय संगं) साधु को फिर कभी प्रमाद का संग नहीं करना चाहिए ।।१६॥
(से भिवख) गरुकूल में निवास करने वाला वह साधु (समीहियठं निसम्म) साधु के आचार को सुनवार या मोक्षरूपी इष्ट अर्थ को जानकर (पडिभाणवं विसारए होइ) प्रतिभावान् और अपने सिद्धान्त का वक्ता या निष्णात हो जाता है । (आयाण अट्ठी) मोक्ष या सम्यग्ज्ञान आदि से प्रयोजन रखने वाला वह साधु (वोदाण मोणं उवेच्च) तप और संयम को प्राप्त करके (सुद्धण मोवखं उवेति) शुद्ध आहार या शुद्ध आचरण के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करता है ।।१७।।
भावार्थ गुरुकूल निवासी साधु प्रश्न करने योग्य अवसर देखकर सम्यग्ज्ञानसम्पन्न आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे तथा सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के आगम या संयमाचरण का उपदेश देने वाले आचार्य का सम्मान करे। उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता हुआ शिष्य आचार्य के द्वारा कहे हए केवली-प्रज्ञप्त सम्यग्ज्ञानादिरूप समाधि को जानकर हृदय में धारण करे ।।१५।।
गुरु के उपदेश में सूस्थित हआ साधू मन-वचन-काया से प्राणियों की रक्षा करे । इस प्रकार समिति और गुप्ति के पालन से ही सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मों का निरोध (संबर) होना बताया है। वे त्रिलोकदर्शी पुरुष वहते हैं कि साधु फिर कभी प्रमाद का संग न करे ।।१६।।
गुरुकूल में निवास करने वाला साधु उत्तम साधू के आचार को सुनकर और इष्ट अर्थ-- सोक्ष को जानकर बुद्धिमान और अपने सिद्धान्त का वक्ता हो जाता है। तथा मोक्ष या सम्यग्ज्ञान आदि से प्रयोजन रखता हुआ वह तप और संयम को प्राप्त करके शुद्ध आचार या शुद्ध आहार के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है ।।१७।।
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