Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 989
________________ सुत्रकृतांग सूत्र जो साधु की सूत्र प्ररूपणा, व्याख्या एवं अध्ययन शुद्ध रूप से करता है, तथा जो शास्त्रोक्त तपश्चरण करता है, एवं जो उत्सर्ग की जगह उत्सर्गधर्म को और अपवाद की जगह अपवाद-धर्म को स्वीकार करता है, उसी साधु का वचन आदेय ( ग्राह्य) होता है, तथा वही शास्त्र का अर्थ करने में कुशल तथा विना विचार किये कार्य न करने वाला पुरुष उस सर्वज्ञोक्त समाधि की व्याख्या कर सकता है । यह मैं कहता हूँ ||२७|| व्याख्या गुरुकुलवासी साधु द्वारा वाणी प्रयोग : कब और कैसा ? अठारहवीं गाथा से लेकर सत्ताईसवीं गाथा तक शास्त्रकार ने गुरुकुलनिवासी निर्ग्रन्थ साधु के द्वारा होने वाले वचन-प्रयोग का स्पष्ट निर्देश किया है । गुरुदेव के सान्निध्य में निवास करने के कारण साधक धर्म में दृढ़, बहुश्रुत, प्रतिभाशाली एवं पदार्थज्ञान में निपुण होकर इतना परिपक्व हो जाता है कि उसके जीवन का कोई भी कोना ऐसा नहीं रह जाता, जिसका सर्वांगपूर्ण निर्माण न हुआ हो । उसके मन, वचन और काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में गुरु की छाया रहती है, उसके हर व्यवहार में गुरु की प्रकृति प्रतिबिम्बित हो जाती है । शास्त्रकार ने पूर्वगाथाओं में उसके मन और तन से होने वाली कर्तव्यरूप प्रवृत्तियों का निरूपण कर दिया है । अब वे इन गाथाओं द्वारा ऐसे परिपक्व साधक के वचन-प्रयोग के सम्बन्ध में मार्गदर्शन दे रहे हैं । गुरुकुल में निवास करते-करते वे साधु उत्तम वृद्धि द्वारा संसार के प्रत्येक पदार्थ का श्रुतचारित्ररूप धर्मदृष्टि से यथार्थ रूप समझ लेते हैं, तभी वे अपनी और दूसरे की शक्ति, रुचि, प्रकृति, योग्यता और क्षमता को जानकर अथवा सभा और प्रतिपादन योग्य बातों को भली-भाँति समझकर धर्म का प्रतिपादन करते हैं । यों धर्म की व्याख्या करते-करते उनका शास्त्रीयज्ञान इतना परिपक्व हो जाता है कि वे जीवादि तत्त्वों के सम्बन्ध में त्रिकालज्ञ हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में वे जन्म-जन्मान्तर में संचित कर्मों का आसानी से अन्त कर डालते हैं, इतना ही नहीं, वे दूसरों को भी कर्मपाश से मुक्त कराने में या संसारासक्ति रूपी बेड़ियों को काटने में समर्थ हो जाते हैं, अर्थात् संसार समुद्र के पारगामी हो जाते हैं । ऐसे परम स्नातक साधु पुरुष अच्छी तरह से शोधित करके पूर्वापर विरुद्ध वचन नहीं बोलते हैं । वे अपनी बुद्धि से पहले यह सोच लेते हैं कि श्रोता कौन है या प्रश्नकर्ता कौन है | उसकी रुचि, योग्यता और क्षमता कितनी है ? पदार्थों को ग्रहण करने की शक्ति (Grasping power) कितनी है ? यह किस भूमिका का व्यक्ति है ? इन बातों का भली-भाँति निरीक्षण-परीक्षण करके वे धर्म का प्रतिपादन करते हैं, या प्रश्न का समुचित उत्तर देते हैं । जैसा कि एक विशेषज्ञ कहते हैं --- ६४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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