Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 1007
________________ सूत्रकृतांग सूत्र अच्चेति) जैसे हवा आग की ज्वाला को उल्लंघन कर जाती है, उसी तरह इस लोक में वह महावीर पुरुष प्रिय स्त्रियों (की आसक्ति) को लाँघ जाता है। भावार्थ जिस साधक के पूर्वकृत कर्म (बाकी) नहीं हैं, वह पुरुष जन्मतामरता नहीं है। जैसे हवा आग की लपटों को लांघ जाती है, वैसे ही इस लोक में महान् वीर साधक मनोज्ञ मनोहर स्त्रियों को उल्लंघन कर जाता है, है, अर्थात् उनके पन्दे में नहीं फँसता । व्याख्या पूर्वकृत कर्म एवं स्त्रीबश्यता नहीं, वही पुरुष महावीर है ___ इस गाथा में महावीरता की परिभाषा दी है। उसके लिए इसमें दो वात विशेषरूप से बताई हैं -- (१) जिसके पूर्वकृत कर्म शेष नहीं हैं, (२) तथा जो प्रिय स्त्रियों के वश में नहीं होता। ण मिज्जइ - नहीं मरता। इसका आशय है, ऐसा साधक जिसके पूर्वकृत संचित कर्म शेष नहीं हैं, वह संसार के जन्ममरण के चक्र में नहीं फँसता और न संसार में भ्रमण करता है। इसका मतलब है-वह महापराक्रमी साधक जन्म, मृत्यु जरा, व्याधि, शोक आदि दुःखों से युक्त नहीं होता । जन्म-मरण आदि उसी के होते हैं, जिसके सैकड़ों जन्मों में उपाजित कर्म शेष हों, तथा जिसने आस्रवद्वारों को नहीं रोका है। आस्रवों में प्रधान मैथुन है, स्त्री-प्रसंग उसका बहुत बड़ा अंग है। इसीलिए शास्त्रकार उपमा देकर समझाते हैं- 'वाउव्व जालमच्चेति, पिया लोगंसि इत्योओ।' अग्नि की ज्वाला जलाने वाली है, वह सहसा उल्लघन नहीं की जा सकती, तथापि न रुकने तथा निरन्तर बहने वाली हवा उसे उल्लंघन कर जाती है, इसी तरह वह महावीर पुरुष हावभाव, कटाक्ष, हास्य, विलास आदि से युक्त, अत्यन्त सुन्दर और दुस्त्यज स्त्रियों को भी उल्लंघन कर जाता है, उनके फंदे में कतई नहीं फंसता, वह वीर साधक उनसे जीता नहीं जाता, क्योंकि वह उनका स्वरूप जानता है। तथा वह स्त्री-परीषह विजय का फल भी जानता है। कहा भी है स्मितेन भावेन मदेन लज्जया, पराङ मुखै रर्धकटाक्षवीक्षितैः । वचोभिरीाकलहेन लीलया समस्त भावैः खलु बन्धनं स्त्रियः ॥१॥ स्त्रीणां कृते भ्रातृयुगस्य भेदः, सम्बन्धिभेदे स्त्रिय एव मूलम् । अप्राप्तकामा बहवो नरेन्द्राः, नारीभिरुत्सादितराजवंशा ॥२॥ अर्थात्-स्त्रियाँ मुस्कराकर, हावभाव दिखाकर, मद से या लज्जा से पराङ - मुख होकर, अर्धकटाक्ष (कनखियों) से देख कर, मधुर वचनों से, ईर्ष्या से, कलह से या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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