Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
कर्मों को तप, संयम आदि से क्षीण करने के लिए जुट जाता है, तो एक दिन उसके प्राचीन और नवीन समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और तब वह बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
मूल पाठ अकुव्वओ णवं णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ । विन्नाय से महावीरे, जेण जायई ण मिज्जई ॥७॥
संस्कृत छाया अकुर्वतः नवं नास्ति, कर्म नाम विजानाति । विज्ञाय स महावीरो, येन जायते न म्रियते ॥७॥
___ अन्वयार्थ (अकुव्वओ णवं पत्थि) जो पुरुष कर्म (कार्य) नहीं करता है, उसके नवीन कर्मबन्ध नहीं होता है। (कम्मं नाम विजाणइ) वह पुरुष अष्टविध कर्मों को विशेषरूप से जानता है। (से महावीरे विनाय) इस प्रकार वह महावीर पुरुष कर्मों को जानकर (जेण जायई ण मिज्जई) ऐसा कार्य करता है, जिससे न तो वह संसार में फिर जन्म लेता है और न ही मरता है।
भावार्थ जो पुरुष कोई कर्म नहीं करता, उसके नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। वह पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को विशेष रूप से जानता है। इस प्रकार वह महान वीर पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को जानकर ऐसा प्रयत्न करता है, जिससे वह संसार में न तो कभी उत्पन्न होता है, और न ही मरता है।
व्याख्या कर्मबन्धन से मुक्ति और उसके बाद"....
इस गाथा में अन्य दार्शनिकों की मुक्ति से वापस लौट आने की मिथ्या मान्यता का खण्डन ध्वनित करते हुए शास्त्रकार तीर्थंकरप्रतिपादित सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं- 'अकुव्वओ णवं णत्थि""जेण जायई ण मिज्जई ।
कुछ दार्शनिकों की मान्यता यह है कि "कर्मक्षय हो जाने के पश्चात् जिनको मोक्ष प्राप्त हो चुका है, वे ज्ञानी भी जब अपने तीर्थ (संघ) की अवहेलना होती देखते हैं, तो पुन: संसार में लौट आते हैं। परन्तु यह मान्यता न तो युक्तिसंगत है और न सत्य ही। क्योंकि जब साधक समस्त क्रियाओं से रहित हो जाता है तो
१. ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् ।
गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि भवं तीर्थनिकारतः ॥
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