Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
आदान : पन्द्रहवाँ अध्ययन
६५५
होने के कारण पर्यायों का अस्तित्व भी कहाँ रहेगा ? इसलिए पर्याय मानने वालों को आधारभूत परिणामी द्रव्य अवश्य मानना चाहिए, लेकिन शाक्यमुनि परिणामी द्रव्य नहीं मानते, इसलिए उन्हें सर्वज्ञ कैसे कहा जा सकता है ?
और सांख्यदर्शन (कपिलप्रणीत ) वाले उत्पत्ति - विनाशरहित एकमात्र स्थिर स्वभाव वाले केवल द्रव्य को ही मानते हैं, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष अनुभूत है कि कार्य करने में समर्थ पर्याय हैं, जिन्हें वे नहीं मानते । किन्तु द्रव्य कदापि पर्याय रहित होता नहीं । इसलिए सांख्यप्रणेता कपिल भी कैसे सर्वज्ञ माने जा सकते हैं ?
द्रव्य और पर्याय, दूध और पानी की तरह घुले-मिले - अभिन्न-से हैं, लेकिन उन्हें सर्वथा भिन्न मानने वाले न्याय दर्शन ( उलूकमत) प्रणेता भी सर्वज्ञ नहीं हैं ।
इस प्रकार अन्य दर्शनप्रणेता असर्वज्ञ होने के कारण उन दर्शनों में से कोई भी दर्शनप्रणेता द्रव्य - पर्यायरूप अनन्यसदृश उभयविध पदार्थ का वक्ता नहीं है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि अर्हन्त ही भूत-भावी - वर्तमान तीनों कालों के पदार्थों के यथार्थ रूप से वक्ता हैं ।
मूल पाठ
तह तह सुक्खायं से य सच्चे आहिए । सया सच्चेण संपन्ने मिति भूएहि कप्पए ॥३॥
संस्कृत छाया
तत्र तत्र स्वाख्यातं तच्च सत्यं स्वाख्यातम् । सदा सत्येन सम्पन्नौ, मैत्रीं भूतेषु कल्पयेत् ॥ ३॥
अन्वयार्थ
( तह तह सुक्खायं ) श्री तीर्थंकरदेव ने भिन्न-भिन्न आगमादि स्थानों में जीवादि पदार्थों का अच्छी तरह से कथन किया है, ( से य सच्चे सुआहिए ) वही सत्य है और वही सुभापित है । (सयसच्चेण संपन्ने मिति भूएहि कप्पए) अतः सदा सत्य से समन्वित होकर जीवों के साथ मैत्रीभाव को धारण करो ।
भावार्थ
श्री तीर्थंकरदेव ने आगम आदि विभिन्न स्थलों में जीवादि तत्त्वों का जो भलीभाँति उपदेश दिया है, वही सत्य है और वही सुभाषित है । इसलिए मनुष्य को सदा सत्य से युक्त होकर जीवों से मैत्री करनी चाहिए ।
व्याख्या
अर्हद्भाषित तत्त्वकथन हो सत्य है इस गाथा में अर्हन्त की सर्वज्ञता सिद्ध की गई है । बात यह है कि वीतराग अर्हन्तदेव ने जीव आदि तत्त्वों का युक्तिसंगत एवं सम्यक् निरूपण किया है, तथा मिथ्यात्व आदि पाँच पापों को बन्ध का कारण कहकर उन्हें संसार का कारण कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org