Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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याथातथ्य : तेरहवाँ अध्ययन
अन्वयार्थ
( आहत्तहीयं तु पवेइयस्सं ) मैं याथातथ्य अर्थात् सच्चे - यथार्थ तत्त्व को बताऊँगा तथा ( नाण प्पकार ) ज्ञान (सम्यग्ज्ञान-दर्शन- चारित्र के बोध ) का रहस्य कहूँगा, ( ( पुरिसस जातं) जीवों के भले-बुरे स्वभावों, तथा गुणों को बताऊँगा, ( असओ असलं, सओ अ धम्मं कुसाधुओं का कुशील और सुसाधुओं का सुशील (धर्म) भी बताऊँगा । (संति असति च पाउं करिस्सामि ) तथा शान्ति (मोक्ष) और अशान्ति (संसार) का स्वरूप भी प्रकट करूँगा ।
है
भावार्थ
८८६
श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं- मैं यथार्थ तत्त्व का, ज्ञानदर्शन- चारित्र के बोध का रहस्य बताऊँगा साथ ही मैं जीवों के अच्छे-बुरे स्वभावों एवं गुणों का भी दिग्दर्शन कराऊँगा, कुसाधुओं के कुशील और सुसाधुओं के सुशील (धर्म) का भी निरूपण करूंगा, एवं शान्ति (मुक्ति) और अशान्ति (तन्धन, संसारभ्रमण) के स्वरूप को भी प्रकट करूँगा ।
व्याख्या
याथातथ्य के निरूपण का अभिवचन इस गाथा में श्री सुधर्मास्वामी द्वारा याथातथ्य के निरूपण का अभिवचन अंकित किया गया है । वास्तव में भाव याथातथ्य में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और विनय इन चारों का समावेश होता है । अतः 'आहत्तहीय' ( यथार्थ तत्त्व) पद से दर्शन याथातथ्य के 'नागप्पकार' ( सम्यग्ज्ञानादि के रहस्य - ज्ञान ) पद से ज्ञानयाथातथ्य के पुरिसस जातं आदि (जीवों के स्वभाव, गुण आदि) सुशील- कुशील पद से चारित्र - याथातथ्य एवं संति असतिं (मोक्ष और बन्ध) से विनययाथातथ्य के निरूपण करने का अभिवचन प्रतीत होता है ।
वस्तु यथार्थतत्त्व या परमार्थ को याथातथ्य कहते हैं । तत्त्वों को यथार्थरूप में समझ लेने पर ही यथार्थ श्रद्धा रूप सम्यग्दर्शन होता है, इसलिए सर्वप्रथम याथातथ्य बताने को कहा है । तदनन्तर नाणप्पकारं ( ज्ञानप्रकार ) कहा है । यहाँ प्रकार शब्द 'आदि' अर्थ में प्रयुक्त है, उसका अर्थ है ज्ञान आदि यानी ज्ञान-दर्शन- चारित्र का रहस्य | इन सबका संक्षिप्त स्वरूप हम पहले बता आए हैं । इसके पश्चात् पुरुषों के नाना प्रकार गुण, धर्म, प्रशस्त अप्रशस्त स्वभाव आदि के निरूपण की बात कही है । जो पुरुष सज्जन है, सदाचारी है, सुसाधु है, सदनुष्ठान करता है, रत्नत्रय - सम्पन्न है, वह जो श्रुतचारित्ररूपधर्म का शुद्ध आचरण करता है, उसे समस्त कर्मक्षयरूप शान्ति (मुक्ति) प्राप्त होती है, इसके विपरीत जो पुरुष असज्जन है, अशोभन है, पतीर्थिक पाषण्डी या पार्श्वस्थ आदि हैं, उनके अधर्म (पाप) कुशील और संसार -
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