Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
६३२
सूत्रकृतांग सूत्र
वचनों को हृदय में धारण करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि "इस महानुभाव ने गलत रास्ते पर जाते हुए मुझे रोककर, मही मार्ग बताया और जन्म-जरामरण आदि अनेक उपद्रवों से भरे हुए मिथ्यात्वरूपी गहन वन से पार किया। यह कितना महान् उपकारी पुरुप है ? इस परम उपकारी का अभ्युत्थान, विनय, आदरसत्कार, प्रतिष्ठा, प्रशंसा आदि द्वारा जितनी पूजा करू, उतनी ही थोड़ी है।" वास्तव में संयमपालन में गलती करने वाले साधु को उसकी गलती सुझाकर जो सन्मार्ग की शिक्षा देता है, वह उसका परम हितैषी बन्धु है।
मूल पाठ णेया जहा अंधकारंसि राओ, मग्गं ण जाणाइ अपस्समाणे । से सूरियस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ॥१२॥ एवं तु सेहेवि अपुट्ठधम्मे, धम्मं न जाणाइ अबुज्झमाणे । से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदए पासइ चक्खुणेव ॥१३॥
संस्कृत छाया नेता यथाऽन्धकारायां रात्री मार्ग न जानात्यपश्यन् । स सूर्यस्याभ्युद्गमेन, मागं विजानाति प्रकाशिते ॥१२।। एवं तु शैक्षोऽप्यपुष्टधर्मा, धर्म न जानात्यबुध्यामनः । स कोविदो जिनव वनेन पश्चात् सूर्योदये पश्यति चक्षुषेव ॥१३॥
अन्वयार्थ (जहा णेया अंधकारंसि राओ) जैसे मार्गदर्शक पुरुष अंधेरी रात में (अपस्समाणे मग्गं न जाणाइ) नहीं देखता हुआ मार्ग को जान नहीं पाता, (से सूरियस्स अब्भुग्गमेणं पगासियंसि) परन्तु वही सूर्योदय होने पर चारों ओर प्रकाश फैलते ही (मग्गं वियाणाई) मार्ग को स्पष्ट जान लेता है ।।१२॥
(एवं तु अपुठ्ठधम्मे सहेवि) इसी प्रकार धर्मतत्त्व में अनिपुण---अपरिपक्व शिष्य भी (अबुज्झमाणे धम्मं न जाणाइ) सूत्र और अर्थ को नहीं समझता हुआ धर्म को भी नहीं जानता; (से जिणवयण कोविए) परन्तु वही अबोध शिष्य एक दिन जिनवचनों के अध्ययन ---अनुशीलन से विद्वान् हो जाता है, (पच्छा सूरोदये पासति चक्ख णेव) फिर तो वह धर्म को इस प्रकार स्पष्ट जान लेता है, जैसे सूर्योदय होने पर आँख के द्वारा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों को स्पष्ट जान-देख लेता है ।।१३।।
भावार्थ जैसे मार्गदर्शक पुरुष अंधकारपूर्ण रात्रि में न दिखाई देने के कारण मार्ग को नहीं जान पाता है, परन्तु वही व्यक्ति सूर्योदय होने के पश्चात्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org