Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र बिना न रहेंगे, किन्तु वह उनमें राग-द्वेष न करे। यहाँ 'अणासवें' शब्द है, उसका अर्थ है, वह उन पर आस्रव न करे। वस्तु को भले या बुरेरूप से ग्रहण करना आस्रव है। साधु आस्रवरहित हो जाय । वह उनमें मध्यस्थवृत्ति धारण करके संयम में पराक्रम करे। 'निद्रा' और 'प्रमाद' दो शब्द यह सूचित करते हैं कि साधु निद्रारूप प्रमाद न करे, साथ ही वह विकथा, कषाय, मद, विषय आदि अन्य प्रमादों से भी दूर रहे। किसी वस्तु या अपने द्वारा गृहीत महाव्रत-भार से पार होने की शंका या कोई भ्रांति हो तो गुरु-सानिध्य में रहने वाला साधु गुरु से समाधान प्राप्त करके उक्त शंका नदी से पार हो जाए । अथवा गुरुकुल में रहने वाला साधक समस्त शंकाओं से पार हो जाता है।
मूल पाठ डहरेण वुडढेणऽणुसासए उ, राइणिएणावि समव्वएण । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिज्जतए वावि अपारए से ॥७॥ विउठितेणं समयाणुसिठे, डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य । अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं व समयाणु सिसठे ।।८।। ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेज्जा, ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा। तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमायं कुज्जा ।।६।। वणंसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तेणावि मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयंति ॥१०॥ अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव्व पूया सविसेसजुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेति सम्मं ॥११॥
संस्कृत छाया दहरेण वृद्ध नानुशासितस्तु, रत्नाधिकेनाऽपि समवयसा सम्यक्तया स्थिरतो नाभिगच्छेनीयमानो वाप्यपारगः सः व्युत्थितेन समयानुशिष्टो दहरेण वृद्धेन तु चोदितश्च अत्युत्थितया घटदास्या वाऽगारिणां वा समयानुशिष्ट: न तेषु क ध्येन्न च प्रव्यथयेन चाऽपि किञ्चित् परुषं वदेत् । तथा करिष्यामीति प्रतिशृणुयात् श्रेयः खलु ममेदं न प्रमादं कुर्यात् ॥६॥ वने मूढस्य यथाऽमूढाः मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् तेनाऽपि मह्यमिदमेव श्रेयः यन्मे वृद्धाः सम्यगनुशासति
॥७॥
॥८॥
॥१०॥
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