Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
__ कारण यह है कि इस लोक में जीव नाना प्रकार के कर्मों के कारण दुःखरूप फल भोगता है। दूसरा कोई उस दुःख को कम नहीं कर सकता, न उसमें हिस्सा बँटवा सकता है। स्वयंकृत कर्म स्वयं को ही भोगना पड़ेगा। इस प्रकार लोक का अनुचिन्तन करता हुआ साधु ऐसे अप्रमत्त साधुओं के सान्निध्य में जाकर संयम पालन करे अथवा संयम में पराक्रम करे । - इससे आगे शास्त्रकार क्रियावादी की योग्यता का दिग्दर्शन कराते हैं—'जे आयओ.... अणुवीइ धम्म' क्रियावादी साधक दो प्रकार के हैं-- एक सर्वोच्च क्रियावादी सर्वज्ञ, दूसरे गणधर आदि। जो सर्पज्ञ हैं, वे तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को यथार्थरूप से जान लेते हैं; और जो गणधर आदि छद्मस्थ हैं, वे तीर्थकरादि के वचनों से जीवादि पदार्थों को सम्यकरूप से समझ लेते हैं, और स्वतः या परतः धर्म को जानकर दूसरों को उपदेश देते हैं । वे अपने और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं तथा धर्मार्थी समवसरण को धर्मोपदेश देने में समर्थ हैं । धर्मार्थी एवं मुमुक्षु साधक ऐसे ज्योतिस्वरूप (तेजस्वी-पदार्थों के यथार्थ प्रकाशक) मुनिवरों के सान्निध्य में रहकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र का अपूर्व लाभ उठाते हैं। वे भी ऐसे जिज्ञासुओं और मुमुक्षुओं को देखकर देश, काल, पात्र, व्यक्ति की योग्यता, परिस्थिति आदि सोच-विचारकर उसकी क्षमता और योग्यता के अनुरूप धर्म बताते हैं। वास्तव में गुरुकुलनिवासी को ही ऐसा सुयोग और सुफल मिल सकता है। यह तो हआ यथार्थ क्रियावादी की योग्यता और क्षमता का विवरण ! अब उसका स्वरूप भी शास्त्रकार बताते हैं जो क्रियावादी साधक होगा वह आत्मवादी अवश्य होगा, और जो आत्मवादी होगा वह लोकवादी और कर्मवादी अवश्य होगा। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है
जे आयावाई से लोयावाई, जे लोयावाई से कम्मावाई,
जे कम्मावाई से किरियावाई।
जो आत्मवादी होगा, वह लोकवादी होगा यानी लोक-परलोक को अवश्य मानेगा, और जो लोकवादी होगा, वह कर्मवादी होगा यानी कर्म और उनके फल पर विश्वास करेगा और जो कर्मवादी होगा, वह क्रियावादी भी होगा। इसी बात को शास्त्रकार दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हैं - 'अत्ताण .... जणोववायं । अहोऽवि सत्ताण ... किरियवायं ।' आशय यह है कि आत्मा को जो पुरुष जानता है, वह उसे कर्मानुसार परलोक में जाने वाला, शरीर से भिन्न, सुख-दुःख का आधार, कर्ता-भोक्ता और पुण्य-पापरूप फल पाने वाला–यों जानकर जो आत्म-कल्याण की साधना में प्रवृत्त होता है, वही आत्मज्ञ है।
जो पुरुष अहं (मैं) इस प्रकार की प्रतीति से ग्रहण करने योग्य आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है, वही प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप समस्त लोक को जानता है ।
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