Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
उसकी प्रज्ञा ज्ञानावरणीय आदि कर्मो से ढकी रहती है। समस्त अंधेरे को मिटाने वाले, कमल समूह को विकसित करने वाले, प्रति दिन उदय-अस्त होते एवं गति करते हुए सूर्य को तो सारा जगत प्रति दिन देखता है। चन्द्रमा भी शुक्ल-कृष्णपक्ष में क्रमश: बढ़ता-घटता देखा जाता है। नदियाँ वर्षा ऋतु में जल की तरंगों से भरी और बहती हुई प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं । वृक्ष के कम्पन आदि द्वारा वायु के बहने-चलने का भी अनुमान होता है।
अभियावादी जो समस्त वस्तुओं को माया या इन्द्रजाल के समान मिथ्या बताते हैं, यह भी ठीक नहीं। क्योंकि समस्त वस्तुओं का अभाव मानने पर अमायारूप किसी भी सत्य वस्तु के न होने पर माया का भी अभाव होगा। तथा माया का जो कथन करता है, तथा जिसके प्रति कथन करता है, इन दोनों का भी अभाव होने से माया का कथन भी सिद्ध नहीं हो सकता है। संसार को स्वप्नवत् मिथ्या कहने वाले चार्वाक जाग्रत माने जाने पर यह सिद्ध हो जाता है कि चार्वाक जाग्रत को मानता है तो स्वप्न को तो मान ही लिया। स्वप्न भी अभावरूप नहीं है, क्योंकि स्वप्नदृष्ट पदार्थ बाहर भी पाये जाते है । स्वप्नशास्त्र के अनुसार स्वप्न के कारण ये हैं-~
अणुहूयदिट ठचितिय सुयपयइवियारदेवयाऽणूया ।
सुमिणस्स निमित्ताइ पुण्णं पावं च णाभावो ॥ अर्थात् -- अनुभव किया हुआ, देखा हुआ, चिन्तन किया हुआ, सुना हुआ, प्रकृति का विकार, देवता का प्रभाव और पुण्य-पाप, ये सब स्वप्न के कारण होते हैं, अभाव कारण नहीं होता।
__इन्द्रजाल का प्रयोग भी तभी किया जाता है, जब जगत् में दूसरी सच्ची वस्तु हो, इसलिए इन्द्रजाल को भी अभावरूप नहीं कहा जा सकता।
___ दो चन्द्रमाओं की प्रतीति भी तभी हो सकती है, जब दो चन्द्रमा का प्रतिभास कराने वाले एक चन्द्रमा का सद्भाव हो, या रात्रि का समय हो। मगर सर्वशून्य हो तो दो चन्द्रमा की प्रतीति कैसे होगी ? अतः किसी भी वस्तु का अत्यन्त तुच्छरूप अभाव- अत्यन्ताभाव नहीं है। शशविषाण, कूर्मरोम या गगनारविन्द आदि में भी उनके समासपदवाच्य पदार्थ का अभाव है, प्रत्येकपदवाच्य पदार्थ का अभाव नहीं, क्योकि जगत् में शश (खरगोश) भी है और विषाण (सींग) भी है। इसलिए शश को मस्तक पर विषाण (सींग) का उतने मात्र का निषेध यहाँ है। किन्तु वस्तु का आत्यन्तिक अभाव नहीं। इस प्रकार अस्ति आदि क्रिया होने पर भी बुद्धिहीन परतीर्थी अक्रियावाद का आश्रय लेते हैं ।
शास्त्रकार शून्यवाद का खण्डन करते हुए फिर कहते हैं-~-'संवच्छरं""अणागताई' अर्थात् ज्योतिष आदि शास्त्रों को पढ़कर लोग इस लोक में भूत और भविष्य
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