Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
में रहने वाले अम्ब, अम्बरीप आदि परमाधामिक असुर जाति के देव, सुरपद से सौधर्म आदि वैमानिक तथा च शब्द से ज्योतिषी, भवनपति आदि अन्य जाति के देवों को भी समझ लेना चाहिए । गन्धर्व पद से विद्याधर या कोई अन्य व्यन्तरजातीय देव समझने चाहिए। काया शब्द से पृथ्वीकाय आदि ६ ही काया के जीवों को ग्रहण कर लेना चाहिए। और आकाशचारी जितने भी विद्याधर, देव या पक्षीगण आदि हैं, तथा पृथ्वी पर रहने वाले जितने भी त्रस स्थावर प्राणी हैं, एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव हैं । ये सब अपने-अपने कृतकर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों और गतियों में बार-बार जन्म लेते व मरते हैं। यहां अन्य सव प्राणियों यहाँ तक कि देवों का तो नाम लिया, परन्तु मनुष्य का नाम नहीं लिया, इसका कारण यह है कि मनुष्य योनि में मानव अगर तीर्थंकर जैसे महापुरुषों का उपदेश पाकर संभल जाय तो साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका बनकर संसार परिभ्रमण के कारणों का अन्त कर सकता है, मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । अन्य गतियों - योनियों में तो कर्मबन्धन को काटने की शक्ति ( किसी-किसी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के सिवाय) या मोक्ष प्राप्ति की योग्यता या शक्ति नहीं है । यह उपदेश कितना मार्मिक है - मानव समवसरण के लिए ?
संसार के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले तीर्थंकर, गणधर आदि धमार्थी मानव समवसरण के समक्ष संसार का स्वरूप बताते हैं
'जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहण दुमोक्खे ।' आशय यह है कि संसार स्वयंभूरमण समुद्र जलसमूह के समान अपार, अगाध और दुस्तर बताया है । स्वयम्भूरमण समुद्र के जलसमूह को कोई भी जलचर या स्थलचर नहीं लाँघ सकता । इसी प्रकार यह संसारसागर भी दुर्लध्य है । यह गहन वन ८४ लाख जीवयोनि प्रमाण है, यथासम्भव संख्यात, असंख्यात और अनन्त काल की स्थिति वाला है । यह आस्तिक जीवों से भी दुस्तर है, नास्तिकों की तो बात ही दूर रही । जो पुरुष इस संसार में सावद्यकर्म का अनुष्ठान करते हैं, कुमार्ग में पड़े हैं, असत् दर्शन के अनुयायी हैं, विषयासक्त हैं, अंगनाओं में आसक्त हैं,
उत्तरोत्तर उच्च स्थान
१. यहाँ देवों का नाम इसलिए भी लिया है कि कुछ अन्यतीर्थी लोग यह मानते हैं कि देवता मनुष्य की अपेक्षा अधिक विकास करके प्राप्त करके मोक्ष में जा सकते हैं, परन्तु यहाँ देवों की नामोल्लेख करके यह बता दिया है कि देवता कर्मों को प्रगति करने में मनुष्य से बहुत पीछे हैं । वे मोक्ष प्राप्ति में मनुष्य की होड़ नहीं कर सकते । मोक्ष का अधिकार उन्हें नहीं है । अतः अन्यतीर्थिकों की इस गलत मान्यता का भी खण्डन कर दिया गया है ।
पृथक् पृथक् जाति का काटकर आध्यात्मिक
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