Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वीरस्तुति : छठा अध्ययन
संस्कृत छाया
स प्रज्ञयाऽक्षयसागर इव महोदधिरिवाऽपि अनन्तपारः अनाविलो वा अकषायी मुक्तः, शक्र इव देवाधिपतिद्युतिमान् ||८||
अन्वयार्थ
६४७
(से) वे भगवान् महावीर स्वामी (सागरे वा ) समुद्र के समान (पन्नया) प्रज्ञा (a) अक्षय थे । ( महोदही वावि अनंतपारे) अथवा वे स्वयम्भूरमण समुद्र के समान अपार प्रज्ञा वाले थे । ( अणाइले वा) जैसे समुद्र का जल निर्मल होता है, उसी तरह भगवान् की प्रज्ञा निर्मल थी, ( अकसाइ मुक्के) वे कषायों से रहित और मुक्त-- रागद्वेषमुक्त थे । (सक्केव देवाहिवइ) जैसे देवों का अधिपति इन्द्र होता है, वह तेजस्वी होता है, वैसे ही भगवान् महावीर भी दिव्यगुणसम्पन्न साधकों के अधिपति तथा बड़े तेजस्वी थे ।
व्याख्या
अक्षय, अपार और निर्मल प्रज्ञा से सम्पन्न वीरप्रभु !
I
की दृष्टि से एकदेशीय
इस गाथा में बताया गया है कि भगवान् समुद्र के समान अक्षय प्रजासम्पन्न थे । जिस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र अपार एवं निर्मल है, उसी प्रकार भगवान् महावीर स्वामी की प्रज्ञा का भी कोई पार नहीं था, वह निर्मल थी। जो पदार्थ जानने योग्य हैं, उसमें भगवान् की बुद्धि कभी क्षय को प्राप्त नहीं होती थी, न वह किसी के द्वारा रोकी (प्रतिहत की जा सकती थी । वस्तुतः भगवान् की इस प्रज्ञा का नाम केवलज्ञान है, जो काल से आदि अनन्त है । द्रव्य, क्षेत्र और भाव से भी अनन्त एवं अक्षय है । यह अन्त-रहित है । वैसे तो भगवान् अनुपम थे । संसार के किसी भी पदार्थ से उनकी उपमा नहीं दी जा सकती । सम्पूर्ण तुल्यता का दृष्टान्त नहीं मिलता । फिर भी शास्त्रकार भगवान् का परिचय देने दृष्टान्त देकर समझाते हैं - 'से पन्नया देवाहिवइ जुइमं ।' अर्थात् -- जैसे समुद्र अक्षय जल से युक्त होता है, वैसे ही भगवान् भी प्रज्ञा (ज्ञान) से अक्षय थे । जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र अपार, विस्तृत, गम्भीर जल वाला तथा अक्षोभ्य होता है, भगवान की प्रज्ञा भी अपार, विस्तृत उस समुद्र से भी अनन्तगुण गम्भीर और क्षुब्ध न होने वाली थी । इस समुद्र का जल जैसे निर्मल होता है, वैसे ही भगवान् का ज्ञान भी कर्म का लेश न होने के कारण निर्मल था । भगवान अकषायी थे, क्योंकि वे चारों कषायों से सर्वथा रहित थे । भगवान् रागद्वेष या वासनाजन्य ज्ञानावरणीय आदि घातकर्मों के नष्ट हो जाने से मुक्त थे । कहीं-कहीं भिक्खू' पाठ भी 'मुक्के' के बदले मिलता है, उसका अर्थ यह है कि यद्यपि भगवान् के सब अन्तराय नष्ट हो चुके थे, तथा वे समस्त जगत् के पूज्य थे, तथापि वे भिक्षावृत्ति से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे । वे अक्षीणमहानसादि लब्धि का उपयोग नहीं
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