Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अभाव ) जानकर, बोध प्राप्त करो । ( लोए) यह लोक ( जरिए व ) ज्वर से पीड़ित व्यक्ति की तरह ( एतदुक्खे) एकान्त ( बिलकुल ) दुःखी है । ( सकम्मुणाविप्परियासुवेइ) अपने-अपने कर्म से सुख चाहता हुआ भी जीव दुःख प्राप्त करता है ।
भावार्थ
हे जीवो ! मनुष्यभव की दुर्लभता को समझो, नरक और तिर्यंच गति में होने वाले भयंकर खतरों को देखो, विवेकहीन व्यक्ति बोधिलाभ नहीं प्राप्त कर सकता, इसलिए समय रहते बोध प्राप्त करो। यह संसार तो बुखार से पीड़ित मनुष्य की तरह सर्वथा दुःखी है । वह सुख के लिए नाना पाप करता है, पर फल उलटा ही पाता है-दुःखभय, संकटपूर्ण ।
व्याख्या
एकान्तदुःखी संसार में बोधिलाभ ही महत्त्वपूर्ण
इस गाथा में शास्त्रकार ने बोधिलाभ पर जोर दिया है । प्राणियों को सम्बोधित करते हुए शास्त्रकार ललकार कर कहते हैं मनुष्यो ! बोध प्राप्त करो । तुम जिन कुशील, पाखण्डी और आरम्भपरायण लोगों के चक्कर में पड़े हो, वे लोग तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते । तुम अपने मनुष्यजन्म पर विचार करो कि यह कैसे और कितनी कितनी घाटियाँ पार करने के बाद मिला है ? मनुष्यजन्म प्राप्त करके भी फिर अज्ञान और मोह में फँसे रहे, अपने जन्म को सार्थक करने का विचार नहीं किया तो 'काता पींजा सब कपास' हो जाएगा। क्या तुम्हें पता नहीं है। मनुष्यजन्म, उत्तम क्षेत्र, उत्तम जाति, कुल, रूप, आरोग्य, आयु, बुद्धि, धर्मश्रवण, उच्च विचार ग्रहण, श्रद्धा और संयम- ये इस संसार में अतीव दुर्लभ हैं ।
ऐसे दुर्लभ मनुष्यजन्म तथा अन्य उत्तम साधनों को पाकर भी जो मूढ़ धर्माचरण नहीं करता, उसे फिर बोध प्राप्त होना मुश्किल है। और फिर यह भी तो आँखें खोलकर देखो कि यह संसार ज्वरपीड़ित मनुष्य की तरह त्रिविध दुःखों की भट्टी में सर्वथा जल रहा है, कहीं भी तो सुख नहीं । जन्म, जरा, रोग, मृत्यु सब दुःखरूप है, सारा संसार दुःखमय है, जिसमें प्राणी क्लेश पा रहे हैं । इसलिए कि संसारी अविवेकी प्राणी सुख के लिए नाना प्रकार के आरम्भ करते हैं, परन्तु उनसे सुख के बजाय दुःख ही पल्ले पड़ता है । सचमुच, इस लोक में अनार्यकर्म करनेवाला पुरुष अपने ही दुष्कर्मों से दुःख पाता है । वह सुख के लिए प्राणिघात करके दुःख ही पाता है, मोक्ष के लिए जीवों का नाश करके संसार भ्रमण करता हैं ।
१. माणुस्स- खेत्त - जई - कुल - रुवा रोग्गमाउयं बुद्धी ।
सवणग्गहसद्धा संजमो य लोगम्म दुल्लहाई ॥
२.
सुखार्थी प्राण्युपमर्दं कुर्वन् दुःखमाप्नोति, यदि वा मोक्षार्थी संसारं पर्यटतीति विपर्यासः ।
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