Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
मूल पाठ एयम; स पेहाए, परमाणुगामियं निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ॥६॥
___ संस्कृत छाया एतदर्थं स प्रेक्ष्य, परमार्थानुगामिकम् । निर्ममो निरहंकारश्चरेद्, भिक्षुजिनाहितम् ।।६।।
. अन्वयार्थ (स) वह साधु (एयमलैं) 'स्वकृत पाप से दुःख भोगते हुए प्राणी की कोई रक्षा नहीं कर सकता, इस बात को (पेहाए) भली-भाँति जान-देखकर (परमट्ठाणुगामियं) तथा परमार्थरूप मोक्ष या धर्म के कारणभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, यह जानकर (निम्ममो निरहंकारो) ममतारहित और अहंकारशून्य होकर (भिक्खू) भिक्षु-साधु (जिणाहियं) वीतराग-भाषित धर्म का (चरे) आचरण करे ।
भावार्थ अपने किये हुए कर्मों से सांसारिक दुःख भोगते हुए प्राणी को रक्षा करने में कोई भी दूसरा समर्थ नहीं है, इस बात को अच्छी तरह सोचसमझकर तथा मोक्ष या धर्म का कारण-रत्नत्रय है, इसे हृदयंगम करके साधु ममत्व से रहित और अहंकार से शून्य होकर जिनेन्द्रप्ररूपित धर्म का आचरण करे।
व्याख्या जिनभाषित धर्म का आचरण क्यों करे ?
इस गाथा में शास्त्रकार ने पूर्वोक्त सिद्धान्त का हवाला देकर साधक को जिनभाषित धर्म पर चलने की प्रेरणा दी है। यह सत्य है कि दूसरे के पापकर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता और न ही पापकर्मजनित दुःख से उसे बचा सकता है, तब कर्मरहित होने या पापकर्म से बचने के लिए मोक्षमार्ग के साधन रत्नत्रयरूप धर्म के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। इसी उपाय को शास्त्रकार ने बताया है कि धर्म और कर्म दो विरोधी चीजें हैं । कर्म से बचने या कर्म से रहित होने का उपाय धर्म है। इस बात को साधक प्राणियों के स्वयमेव कर्मफलस्वरूप दुःख भोगने के सिद्धान्त से समझे, सोचे और वीतरागभाषित संयमधर्म---रत्नत्रयरूपधर्म का रास्ता अंगीकार करे।
मूल पाठ चिच्चा वित्त च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं । चिच्चा ण णंतगं सोयं, निरवेक्खो परिव्वए ॥७॥
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