Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समाधि: दशम अध्ययन
नौवें अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब दसवाँ अध्ययन प्रारम्भ किया जा रहा है । इस अध्ययन का पूर्व अध्ययन के साथ सम्बन्ध यह है कि नौवें अध्ययन में प्रतिपादित धर्म की साधना तभी सुचारुरूप से हो सकती है, जबकि अविकल समाधि हो । इसलिए दसवें अध्ययन में शास्त्रकार समाधि का निरूपण करते हैं ।
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय इस अध्ययन का नाम 'समाधि' है । यह इसका गुणनिष्पन्न नाम है, क्योंकि इस अध्ययन में समाधि का ही प्रतिपादन किया गया है । समाधि का अर्थ हैतुष्टि, संतोष, आत्म-प्रसन्नता, आनन्द या प्रमोद । समाधि का व्याकरण की दृष्टि से अर्थ है --- सम्यग आधीयते व्यवस्थाप्यते मोक्षं तन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः । जिस धर्मध्यान या श्रुत, विनय, आचार एवं तपरूप साधना के द्वारा आत्मा मोक्ष या मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थापित या व्यवस्थित किया जाता है, वह समाधि है । प्रस्तुत अध्ययन में भावसमाधि के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है । भावसमाधि आत्म-प्रसन्नता की प्रवृत्ति को कहते हैं, अथवा जिन गुणों द्वारा जीवन में समाधि (आत्म-प्रसन्नता) का लाभ हो, उसे भावसमाधि कहते हैं, जो ज्ञानदर्शन-चारित्र-तपरूप है । दशवैकालिक सूत्र (अ० ६ उ. ४) में चार प्रकार की समाधियों का उल्लेख है-(१) विनयसमाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपःसमाधि और (४) आचारसमाधि । इन चारों समाधियों के प्रत्येक के चार-चार भेद बताये गये हैं । ये चारों भावसमाधि के ही अन्तर्गत हैं। दशाश्रुतस्कन्ध की प्रथम दशा में बीस प्रकार के असमाधिस्थान बताये हैं, जो साध्वाचार से सम्बन्धित हैं, इन २० असमाधिस्थानों से दूर रहना भी भावसमाधि है । समग्र अध्ययन में किसी प्रकार का संचय न करना, समस्त प्राणियों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना, सब प्रकार की प्रवृत्ति में हाथ-पैर आदि अंगोपांगों को संयम में रखना, किसी अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना आदि सदाचार के नियमों के पालन पर बार-बार जोर दिया गया है। शास्त्रकार ने पुनः-पुनः इस बात का समर्थन किया है कि स्त्रियों में आसक्त रहने वाले तथा परिग्रह में ममत्व रखने वाले श्रमण समाधि प्राप्त नहीं कर सकते। उत्तराध्ययन सूत्र में ब्रह्मचर्यसमाधि नामक १६वाँ अध्ययन इसी बात द्योतक है। अतः
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