Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समाधि : दशम अध्ययन
७६६
दूसरा कोई भी जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक से पूर्ण इस जगत में स्वकृतकर्म के फलस्वरूप दुःख भोगते हुए की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। इसीलिए कहा है
एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंगण संजुओ ।
सेसा मे बहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।। एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वभावः । बहिर्भवा: सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्वता: कर्मभवा: स्वकीयाः ।।
अकेला मेरा आत्मा ही शाश्वत है, जो ज्ञानदर्शन से युक्त है । शेष सभी पदार्थ बाह्य हैं और वे कर्म के कारण संयोग को प्राप्त है । मेरा आत्मा ही एकमात्र अकेला है, वही शाश्वत, निर्मल है, ज्ञानस्वरूप है, अन्य सब बाह्यभाव-परभाव है, जो शाश्वत नहीं है, कर्म के कारण संयोग को प्राप्त हैं, स्वकीय लगते हैं। इस प्रकार साधु एकात्व की भावना प्रतिदिन सतत करता रहे। एकत्व की भावना से सभी झंझटों, मोहमाया, प्रपंचों, संयोगों वगैरह से अनायास ही छुटकारा (मुक्ति) हो जाएगी, इसमें जरा भी असत्य नहीं है, यह परम सत्य है । एकत्व की भावना ही उत्कृष्टमोक्ष का उपाय है, तथा यही सत्य है, वास्तविक भावसमाधि है, प्रधान है। जो क्रोध नहीं करता, उपलक्षण से मान, माया और लोभ से भी दूर है, जो तप से अपने शरीर को तपाता है, तथा सत्यरत है, वही पुरुष सबसे प्रधान, सच्चा मुक्त और समाधिपरायण है।
मूल पाठ इत्थीसु वा आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुव्बमाणो । उच्चावएस विसएसु ताई, निस्संसय भिक्खू समाहिपत्ते ॥१३॥
संस्कत छाया स्त्रीषु चारतमैथुनेस्तु, परिग्रहञ्चैवाकुर्वाण: उच्चावचेषु विषयेषु वायी, नि:संशयं भिक्षुः समाधिप्राप्त: ॥१३।।
अन्वयार्थ (इत्थीसु वा आरय मेहुणाओ) जो पुरुष स्त्रियों के साथ मैथुन नहीं करता है, (परिग्गहं चेव अकुब्वमाणो) तथा परिग्रह भी नहीं रखता है । (उच्चावएसु विसएस ताई) एवं नाना प्रकार के विषयों में राग-द्वषरहित होकर जीवों की रक्षा करता है, (निस्संसयं भिक्खू समाहिपत्त) निःसन्देह वही साधु समाधि को प्राप्त है।
भावार्थ जो साधक स्त्रियों के साथ मैथन सेवन से विरत है, तथा परिग्रह भी नहीं रखता है। एवं नाना प्रकार के विषयों में राग-द्वेष रहित होकर जीवों की रक्षा करता है, निःसन्देह वही साधु समाधि को प्राप्त है ।
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