Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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मार्ग : एकादश अध्ययन
८२१ पहले तो उसे 'महाघोर' बताया है, वह इसलिए कि पहले तो वह प्रत्येक जीव को या यों कहिए कि प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त होना ही कठिन है। जैन सिद्धान्त का माना हुआ तथ्य है कि अनन्तानुबन्धी चार कषायों का उदय हो तो जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती, जो कि मोक्ष का द्वार है। फिर यह बताया है कि 'बारसविहे कसाए खविए उवसामिए व जोगेहिं लभइ चरित्तलंभो' अर्थात् बारह प्रकार के कषायों (अनन्तानुबन्धी चार, अप्रत्याख्यानी चार एवं प्रत्याख्यानी चार) के क्षय या उपशम करने पर जीव को शुभयोगों से चारित्र की प्राप्ति होती है। और मनुष्यजन्म, धर्मश्रवण, धर्ममार्ग पर श्रद्धा और चारित्रपालन में पराक्रम, ये चार बातें परम दुर्लभ हैं, जो मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिए प्राथमिक रूप से आवश्यक हैं । इतना दुर्लभतर मोक्षमार्ग है। जैसे कायर पुरुष का युद्ध में प्रवेश करना भयदायक होता है, वैसे ही अल्पशक्ति वाले, संयम में कायर, विषयभोगासक्त मनुष्य के लिए इस (मोक्ष) मार्ग पर पैर रखना महाभयदायक है, इसलिए यह घोरतर है ।
इतना होने पर भी सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी आदि शिष्यों को आश्वासन देते हुए दृष्टान्त देकर कहते हैं---इतना दुर्लभतर एवं कठोरतर होते हुए भी यदि किसी ने इस मार्ग का आश्रय ले लिया है और सावधानी रखी है तो उन्होंने आज तक दुस्तर संसार-समुद्र को आसानी से पार किया है, जैसे समुद्रमार्ग द्वारा विदेश में व्यापार करने वाले व्यापारी सावधानीपूर्वक समुद्र को पार कर लेते हैं । आशय यह है कि अधिक लाभ के लिए क्रय-विक्रय करने वाले समुद्रमार्ग से व्यापार करने वाले व्यवहारी जहाज पर चढ़कर दुस्तर समुद्र को पार कर लेते हैं, वैसे ही अनना और निर्बाध सुख के अभिलाषी साधु सम्यग्दर्शन आदि मार्ग पर चलकर दुस्तर संसारसागर को पार लेते हैं और मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
मूल पाठ अरिस् तरंतेगे, तरिस्संति अणागया । तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे ।।६।।
संस्कृत छाया अतारिषुस्तरन्त्येके, तरिष्यन्ति अनागताः । तं श्रु त्वाप्रतिवक्ष्यामि, जन्तवस्तं शृणुत मे॥६।।
अन्वयार्थ (अरिसु) इस मार्ग का आश्रय लेकर भूतकाल में अनेक लोगों ने संसारसागर को पार किया है, (तरंगे) तथा कोई भव्यजीव वर्तमानकाल में भी संसारसागर को पार करते हैं, (तरिस्संति अणागया) एवं भविष्य में भी बहुत-से जीव संसारसमुद्र को पार करेंगे । (त सोच्चा पडिवक्खामि) उस मार्ग को मैंने भगवान्
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