Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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मार्ग : एकादश अध्ययन
८४३
सन्धयेत् साधुधर्मञ्च, पापधर्म निराकुर्यात् । उपधानवीर्यो भिक्षुः क्रोधंमानञ्च वर्जयेत् ॥३५।।
अन्वयार्थ (कासवेण पवेइयं) काश्यपगोत्री भगवान् महावीर द्वारा बताये हुए (इमं च धम्म आदाय) इस धर्म को प्राप्त करके (महाघोरं सोयं तरे) साधु महाघोरतम संसारसागर को पार करे, तथा (अत्तत्ताए परिव्वए) अपनी आत्मा की रक्षा के लिए संयम में प्रगति करे ।।३२॥
(गामधम्मेहि विरए) साधु इन्द्रियों के शब्दादि धर्मों-विषयों से विरत होकर (जगई जे केई जगा) जगत् में जो भी प्राणी हैं, (तेसि अत्त वनाए) उनको अपने समान समझता हुआ (थामं कुव्वं परिव्वए) संयम में पराक्रम करता हुआ प्रगति करे ॥३३॥
(पंडिए मुणी) विद्वान् मुनि (अइमाणं च मायं च तं परिन्नाय) अतिमान और माया (छलकपट) को भली-भाँति जानकर (एयं सव्वं णिराकिच्चा) तथा इन सबको त्याग कर (णिव्वाणं संधए) निर्वाण--मोक्ष की खोज करे ॥३४॥
(भिक्खू साहुधम्म संधए) साधु क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म के साथ अपने मन-वचन-काया को जोड़े (पावधम्मं गिराकरे) और जो भी पापयुक्त स्वभाव है, उसका त्याग करे, उसे खदेड़ दे। (उवहाणवीरिए भिक्खू ) तप में अपनी शक्ति लगाने वाला साधु (कोहं माणं ण पत्थए) अपनी तपःसाधना के उत्कर्ष को लेकर क्रोध अभिमान को जरा भी सार्थक न होने दे ॥३५॥
भावार्थ __ काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रकाशित इस धर्म को ग्रहण (स्वीकार) करके बुद्धिमान् साधक महाघोर संसारसागर को पार करे । वह केवल आत्मकल्याणार्थ ही संयम में प्रगति करे ॥३२॥
साध इन्द्रियों के शब्दादि विषयों से विरत होकर संसार में जो भी प्राणी हैं, उन्हें आत्मतुल्य समझता हुआ उत्साहपूर्वक संयम का पालन करे ॥३३॥
हिताहित विवेकी साधु अत्यन्त मान और माया को भली-भाँति जानकर उन सबका परित्याग करके एकमात्र मोक्ष की खोज में लगे ।।३४।।
साधु क्षमा आदि दस प्रकार के श्रमणधर्मों के पालन में ही अपने मन-वचन-काया को जोड़े और जो भी पापमय स्वभाव (आदत) है, उसे खदेड दे। अपनी तपःसाधना में शक्ति लगाने वाला साधु तप के उत्कर्ष को लेकर किसी पर भी कोप न करे और न ही अभिमान प्रगट करे ।।३५।।
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