Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समाधि : दशम अध्ययन
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कहते हैं । वह है---धन का लाभ--द्रव्य की आमदनी । साधु इस लोक में असंयमी जीवन अथवा भोगप्रधान जीवन जीने की आशा से धन का उपार्जन न करे। भविष्य में जीवन निर्वाह कैसे चलेगा? इस चिन्ता से साधु द्रव्यसंचय न करे । 'छंदं ण कुज्जा' इस पाठान्तर के अनुसार अर्थ होता है--साधु-इन्द्रियों के विषयभोग की इच्छा न करे। इन पाँचों बातों से साधुजीवन में समाधि-आत्मप्रसन्नता भंग हो जाएगी। कर्मबन्धन के कारण भावी जीवन की समाधि भी खतरे में पड़ जाएगी।
मूल पाठ आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेज्जा । धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥११॥
संस्कृत छाया आधाकृतं वा न निकामयेत्, निकामयतश्च न संस्तुयात् । धुनीयादुदारमनुप्रेक्षमाणः त्यक्त्वा च शोकमनुप्रेक्षमाणः ॥११॥
अन्वयार्थ (आहाकडं वा ण णिकामएज्जा) साधु आधाकर्मी आहार की कामना न करे । (णिकामयते य ण संथवेज्जा) जो आधाकर्मी आहार की कामना करता है, उसके साथ परिचय न करे या उसकी प्रशंसा न करे। (अणु वेहमाणे उरालं धुणे) निर्जरा के लिए शरीर को कृश करे (अणवेक्खमाणो सोयं चिच्चा) शरीर की परवाह न करता हुआ उसकी चिन्ता छोड़कर एकमात्र संयमपालन में जुटा रहे ।
__भावार्थ
साधु आधाकर्मी दोषयुक्त आहार की इच्छा न करे, जो आधाकर्मी आहार की कामना करता है, उसके साथ संसर्ग न रखे, या उसकी प्रशंसा न करे, निर्जरा की प्राप्ति के लिए शरीर को (तप से) कृश करे, और शरीर की परवाह न करता हुआ उसकी चिन्ता छोड़कर संयमपालन में जुटा रहे।
व्याख्या ___ समाधिप्राप्ति का एक उपाय : शरीर के प्रति निरपेक्षता इस गाथा में समाधिप्राप्ति का एक महत्वपूर्ण उपाय बताया है-शरीर के प्रति निरपेक्षता । साधक जब शरीर के प्रति निरपेक्ष हो जाता है, शरीर को प्रकृति के भरोसे छोड़ देता है, यथालाभ सन्तोष मानता है, जैसा भी, जो भी, जहाँ भी मिल गया, उसी से शरीर को भाड़ा दे देता है। वास्तव में शरीर को माँगकर लाए हुए उपकरण के समान जानकर साधक उसका ज्यादा लाड़-प्यार नहीं करता, तब आधाकर्मी आहार लाने या सेवन करने की उसके मन में एक ही नहीं उठेगी और
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