Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
दूसरा समत्व है - परिस्थितिकृत । वह इस प्रकार है- भावसमाधि में सम्यक् उन्नति करके यानी दीक्षा लेकर भी कई साधक परीपहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर समाधिभाव को खो बैठते हैं, दीन हो जाते हैं, पश्चात्ताप करते हैं और विषयार्थी होकर फिर गृहस्थ हो जाते हैं । यह समत्वभंग है । इसी प्रकार कई साधक दीक्षा लेकर अपने सत्कार-सम्मान या प्रसिद्धि-प्रशंसा के चक्कर में पड़ जाते हैं । जब पूजासत्कार या प्रसिद्धि नहीं मिलती तो वे पार्श्वस्थ बनकर खेद करते हैं या ज्योतिष, सामुद्रिक या निमित्तशास्त्र आदि पढ़कर पूजा-प्रतिष्ठा पाने का उपक्रम करते हैं, यह भी समत्वभंग है । तात्पर्य यह है कि साधु परीपहों और उपसर्गों से पीड़ित होने की परिस्थिति में भी समभाव रखे, और सत्कार - प्रशंसा या सम्मान की कामना के समय भी संतुलित रहे । सत्कार-सम्मान न मिलने पर भी समत्व रखे । इस प्रकार का परिस्थितिक समत्व ही समाधि का उत्तम मार्ग है ।
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मूल पाठ
आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसणमेसी । इत्थी सत्तेय पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुव्वमा ||८|| संस्कृत छाया
आधाकृतञ्चैव निकाममीणो, निकामचारी च विषण्णेषी । स्त्रीषु सक्तरच पृथक् च बालः, परिग्रहं चैव प्रकुर्वाणः
||८||
अन्वयार्थ
( आहाकडे चैव निकाममीणे ) जो साधक दीक्षा लेकर आधाकर्मी आहार की अत्यन्त लालसा रखता है, ( नियामचारी य विसण्णमेसी) तथा जो आधाकर्मी आहार के लिए इधर-उधर बहुत घूमता है, वह वास्तव में विषण्ण संयमपालन में शिथिल ( कुशील) बनना चाहता है | ( इत्थीसु सत्त य) तथा जो स्त्रियों में आसक्त रहता है, ( पुढो व बाले) स्त्री के विलासों में अज्ञानी की तरह मुग्य रहता है तथा (परिहं चेव पकुवमाणे) स्त्री की प्राप्ति के लिए परिग्रह रखता है, वह पापकर्म करता है ।
भावार्थ
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जो पुरुष प्रव्रज्या लेकर आधाकर्मी आहार की बहुत लालसा रखता है, और आधाकर्मी आहार की तलाश में अत्यन्त भटकता है, वह सचमुच कुशील (शिथिलाचारी - विषण्ण ) बनना चाहता है । तथा जो स्त्रियों में आसक्त रहता है और अज्ञानी की तरह स्त्रियों के विलासों में मुग्ध हो जाता है, तथा स्त्री-प्राप्ति के लिए परिग्रह संचित करता है, वह सरासर पापकर्म करता है ।
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