Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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समाधि : दशम अध्ययन
संस्कृत छाया
आदीनवृत्तिरपि करोति पाप, मत्वात्वेकान्त समाधिमाहुः । बुद्धः समाधौ च रतो विवेके, प्राणातिपाताद् विरतः स्थितात्मा ||६|
अन्वयार्थ
( आदी वित्तीव पाव करेइ ) जो पुरुष दीनवृत्ति करता है यानी कंगाल भिखारी की तरह अपनी जीविका चलाता है, वह भी पाप करता है । ( मंता उ एतसमाहिमा ) यह जानकर तीर्थकरों ने एकान्त समाधि का उपदेश दिया है । ( बुद्ध ठप्पा ) इसीलिए वस्तुतत्त्व का ज्ञाता स्थिरात्मा ( स्थितप्रज्ञ ) शुद्धचित्त पुरुष ( समाहीय विवेगे रए) समाधि और विवेक में रत रहे । (पाणाइवाया विए) एवं प्राणातिपात से निवृत्त -- दूर रहे |
७६१
भावार्थ
जो पुरुष कंगाल और भिखारी के समान भिखमंगेपन से जीविका चलाता है, वह भी पाप करता है। इस तथ्य को जानकर तीर्थंकरों ने एकान्तरूप से भावसमाधि का उपदेश दिया है । अतः विचारशील स्थितप्रज्ञ या शुद्धचित्त पुरुष भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात ( जीवहिंसा) से दूर रहे |
व्याख्या
समाधि : कौन-सी भ्रान्त,
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कौन-सी अभ्रान्त ?
इस गाथा में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट एकान्त समाधि क्या है और समाधि का भ्रम क्या है ? इस बात को शास्त्रकार ने स्पष्ट किया है । कई लोग ज्ञान-दर्शन- चारित्र सम्पन्न महाव्रती एवं तपस्वी साधु को अत्यन्त मस्त और सुखशान्तिमग्न देखकर यह सोचने लगते हैं कि इनका सा वेष पहनने और इनकी तरह भिक्षा माँगकर खाने में बहुत ही मौज मिलेगी, क्योंकि ये साधु कितने प्रसन्न और स्वस्थ हैं ? इस प्रकार सोचकर कई लोग साधु का सा स्वांग रचकर भिक्षा ( भीख ) माँगने लगते हैं। लोग उनकी दुर्वृत्तियों को जानकर उन्हें भिक्षा नहीं देते तो वे उनके सामने गिड़गिड़ाते हैं, दीनता प्रगट करते हैं- " दे दो माई बाप ! भगवान् के नाम पर एक रोटी दे दो ! भगवान् तुम्हारा भला करेगा ! तुम्हारी हजारी उम्र होगी ! बेटेपोतों से तुम्हारा घर भरा रहेगा !" ये और इस प्रकार की चापलूसी करके वे मेहनत मजदूरी किये बिना अथवा धर्माचरण पुरुषार्थ किये बिना मुफ्त में अन्न-वस्त्र प्राप्त कर लेते हैं । इस तरह वे अपने आपको समाधियुक्त समझते हैं । शास्त्रकार कहते हैं - 'आदोगवित्तीवि करेइ पावं ।' आशय यह है कि ऐसे लोग साधु का सा स्वांग रचकर दीनवृत्ति से पेट भरते हैं, निर्वाह करते हैं, वे पाप करते हैं । एक तो होकर समाज से भिक्षा लेते हैं, यह पौरुषघ्नी भिक्षा है, जो कि पाप है ।
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