Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
आदि का भी दूसरे दिन के लिए संग्रह नहीं रखना चाहिए, उसे आकाशीवृत्ति से निसर्गनिर्भर रहना चाहिए, तभी समाधि प्राप्त हो सकती है। अन्यथा आय (आमदनी) और संग्रह की चिन्ता होगी, उसकी सुरक्षा की चिन्ता होगी, उसके चुराये जाने या नष्ट हो जाने पर चिन्ता होगी । ये सब चिन्ताएँ उसकी समाधि को समाप्त कर देंगी। इसलिए साधु को आय और संचय के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए । आय का अर्थ आस्रवों की वृद्धि भी होता है । श्रेष्ठ तपस्वी एवं भिक्षाजीवी साधु को उनसे भी दूर रहना चाहिए। कोई वस्तु दूसरे दिन या कभी भिक्षा द्वारा नहीं मिली तो तपस्या का लाभ मिला, यही समझकर आत्मसंतोष करना चाहिए। यही समाधि का रहस्य है ।
मूल पाठ सव्वि दियाभिनिव्वुडे पयास, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । पासाहि पाणेय पुढोवि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ॥४॥
___ संस्कृत छाया सर्वेन्द्रियाभिनिर्वत्त: प्रजासू, चरेन्मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तः । पश्य प्राणांश्च पृथगपि सत्त्वान्, दुःखेना न् परितप्यमानान् ।।४।।
अन्वयार्थ (पयासु सम्विदियाभिनिव्वुडे) स्त्रियों के विषय में साधु समस्त इन्द्रियों का निरोध करके जितेन्द्रिय बने । (सव्वओ विप्पमुक्के मुणो चरे) बाह्य और आभ्यन्तर सभी बन्धनों या द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के सभी प्रतिबन्धों से मुक्त होकर मुनि संयममार्ग पर विचरण करे। (पाणे य पुढो वि सत्ते) इस संसार में पृथ्वीकाय आदि सभी प्राणी, चाहे वे सूक्ष्म हों या बादर पृथक्-पृथक् रूप से (अट्टे दुक्खेण परितप्पमाण) आर्त (पीड़ित) और दुःख से परितप्त हो रहे हैं, (पासाहि) उन्हें देखो।
भावार्थ साधु स्त्रियों के विषय में अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने तथा सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । इस लोक में सभी प्राणी दुःख भोग रहे हैं, यह देखे ।
व्याख्या जितेन्द्रिय एवं बन्धनमुक्त बनकर सभी संतप्त प्राणियों को देखो
इस गाथा में साध को भावसमाधि के लिए जितेन्द्रिय और बन्धनमुक्त बनना अनिवार्य बताया है। जितेन्द्रिय बनने के लिए पाँचों इन्द्रियों के विषयों की खान स्त्रियों के प्रति बिलकुल अनासक्त होना चाहिए ।
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