Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (सुप्पन्नं सुतवस्सियं) अपने और दूसरे धर्म के सिद्धान्तों को जानने वाले उत्तम तपस्वी गुरु की (सुस्सूसमाणो) सेवा-शुश्रूषा करता हुआ साधु (उवासेज्जा) उपासना करे। (जे वीरा) जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ हैं, (अत्तपन्नेसी) तथा राग-द्वषरहित पुरुष की जो केवलज्ञानरूप प्रज्ञा है, उसका अन्वेषण करने वाले हैं (धितिमंता) एवं धृति से युक्त (जिइंदिया) और जितेन्द्रिय हैं (वे ही पुरुष पूर्वोक्त कार्य को करते हैं।)
भावार्थ जो स्वसमय और परसमय के ज्ञाता (सुप्रज्ञ) हैं तथा उत्तम तपस्वी हैं, ऐसे गुरु की शुश्र षा करता हुआ साधु उनकी उपासना करे। जो पुरुष कर्मक्षय (विदारण) करने में समर्थ हैं तथा वीतराग की केवलज्ञा रूप प्रज्ञा का अन्वेषण करने वाले हैं, धृतिमान और जितेन्द्रिय हैं, वे ही ऐसा कार्य करते हैं।
व्याख्या गुरु-शुश्रुषा करने वाले साधक ही धर्मनिष्ठ होते हैं
इस गाथा में गुरु-शुश्रूषा करने वाले साधकों के उत्तम गुणों का वर्णन किया गया है। गुरु-शुश्रू पा का अर्थ है----गुरु के आदेशों को सुनने की इच्छा, यानी गुरु की वैयावृत्त्य करना। शास्त्रकार गुरु के प्रधान दो गुणों की ओर अंगुलि-निर्देश करते हैं--- 'सुप्पन्नं सुतवस्सियं' जिसकी प्रज्ञा सुन्दर हो, जो स्वपरसिद्धान्त के रहस्य का ज्ञाता हो, तथा जिसकी प्रज्ञा प्रत्येक गुत्थी को धर्म-दृष्टि से सुलझाने में समर्थं हो । फिर उत्तम विशुद्ध बाह्याभ्यन्तर तप करने में निपुण हो, मतलब यह है कि जो ज्ञान और चारित्र में अत्यन्त स्थिर हो, तपातपाया हो, बहुत आगे बढ़ा हुआ हो, वही गुरु उपासनीय संसेवनीय होता है, ऐसे गुरु की उपासना करे। उपासना का अर्थ होता है-- गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करना । गुरु के शरीर की नहीं, गुरु के गुणों की उपासना करना ही वास्तविक उपासना है। उनकी आज्ञा का परिपालन करना ही उनकी सेवा है। जैसे कि कहा है......
नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य ।
धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुचंति ॥ __ अर्थात्-.. गुरु की उपासना करने से साधक ज्ञान का भाजन बनता है, तथा दर्शन और चारित्र में स्थिरतर हो जाता है। वे पुरुष धन्य हैं, जो जीवनपर्यन्त गुरुकुल निवास नहीं छोड़ते ।
गुरु की उपासना कौन कर सकते हैं ? अथवा गुरु-शुश्रूषा करने वाले साधक क्या बन जाते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं - 'वीरा जेनिइंदिया' वे वीर
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