Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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वीर्य : अष्टम अध्ययन
व्याख्या
सम्यग्दृष्टि का पराक्रम शुद्ध और कर्मबन्धफल से रहित
पूर्व गाथा में मिथ्यादृष्टि के पराक्रम के सम्बन्ध में बताया गया था, इस गाथा में शास्त्रकार सम्यग्दृष्टि के पराक्रम के सम्बन्ध में बताते हैं-
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जो बुद्ध' तत्त्वज्ञ हैं, समस्तु वस्तुओं के स्वरूप को यथार्थरूप से जानते हैं, अपने उत्तम गुणों के कारण महापूजनीय हैं। वीर का अर्थ है - कर्मविदारण करने में जो शूरवीर हैं, अथवा जो सम्यग्ज्ञानादि गुणों से विराजित हैं । वे सम्यग्दृष्टि हैं । उनका तप, स्वाध्याय, यम, नियम, दान आदि समस्त अनुष्ठान पराक्रम शुद्ध है, निर्दोष है, अतएव वह विषय-कपायदि दोषों से अकलंकित पण्डितवीर्यरूप शुद्ध अफल होता है, यानी वह कर्मबन्धरूप फल से रहित केवल निर्जरा के लिए ही होता है । सम्यष्टि पुरुष के समस्त तप संयमादि अनुष्ठान निर्जरा का कारण होता है । भगवती सूत्र में भी कहा है
'संजमे अणण्यफले, तवे वोदाणफले संयम का फल आस्रव का रुक जाना है, तप का फल कर्मनिर्जरा है ।
मूल पाठ
सिपि तवो ण सुद्धो, निक्खता जे महाकुला । जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जए
संस्कृत छाया
तेषामपि तपो न शुद्ध, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः यन्नैवाऽन्ये विजानन्ति, न श्लोकं प्रवेदयेत् अन्वयार्थ
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||२४||
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॥२४॥
( सि पि तवो ण सुद्धो) उनका तप भी शुद्ध नहीं है, (जे महाकुला निक्खता) जो महाकुल वाले बड़ी धूमधाम से प्रव्रज्या लेकर पूजा - सत्कार के लिए तप करते हैं । ( जं नेवन्ने विद्याणंति) इसलिए दान में श्रद्धा रखने वाले दूसरे लोग जानें नहीं, इस प्रकार आत्मार्थी को तप करना चाहिए । ( न सिलोगं पवेज्जइ ) तथा तपस्वी को अपने मुँह से अपनी प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए ।
भावार्थ
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जो बड़े कुल में उत्पन्न व्यक्ति बड़ी धूमधाम से दीक्षा लेते हैं, और फिर पूजा-सत्कार पाने के लिए तप करते हैं, उनका तप भी अशुद्ध है । अतः साधु तप को इस प्रकार गुप्त रखे कि दान में श्रद्धा रखने वाले लोग न जानें । तथा साधु अपने मुँह से अपनी प्रशंसा भी न करे ।
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१ वृत्तिकार शीलांकाचार्य के अनुसार यहाँ बुद्ध शब्द से 'स्वयंबुद्ध', तीर्थंकरादि, तथा उनके बुद्धबोधित शिष्य गणधर आदि का ग्रहण किया गया है ।
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