Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र शास्त्रीय परिभाषा में उसे बालवीर्य कहते हैं । वीर्य का दूसरा भेद अकर्म है । जिसमें कर्म न हो, वह अकर्मवीर्य कहलाता है। अकर्मवीर्य कर्म के जोर से निष्पन्न नहीं होता, किन्तु वह वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न आत्मा का स्वाभाविक वीर्य हैं। वैसे चारित्रमोहनीयकर्म के उपशम या क्षयोपशम से उत्पन्न निर्मल चारित्र में पुरुषार्थ को भी वीर्य कहते हैं। हे सुव्रतो ! ऐसे वीर्य को शास्त्रीय परिभाषा में पण्डितवीर्य कहते हैं।
सकर्मवीर्य और अकर्मवीर्य, दूसरे शब्दों में बालवीर्य और पण्डितवीर्य इन्हीं भेदों में सारे संसार का वीर्य समाविष्ट है, या व्यवस्थित है । मर्त्यलोक के समस्त प्राणी इन्हीं दो भेदों में विभक्त है। अच्छी बुरी अनेक प्रकार की क्रियाओं में उत्साह, धैर्य, साहस और पौरुष, बल के साथ लगे हुए व्यक्ति को देखकर स्थूलदृष्टि वाले लोग कहते हैं- "यह पुरुष वीर्य सम्पन्न (शक्तिशाली) है।" किन्तु सम्यग्दृष्टिजन वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से युक्त महापुरुष को अनन्तवीर्य (बल) युक्त कहते हैं ।
पूर्वगाथा में कारण में कार्य का उपचार करके कर्म को ही बालवीर्य कहा गया था, अब अगली गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाद को कर्मरूप बताते हैं
मूल पाठ पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥
संस्कृत छाया प्रमादं कर्म आहुरप्रमादं तथाऽपरम् । तद्भावादेशतो वाऽपि बालं पण्डितमेव वा ॥३॥
अन्वयार्थ (पमायं कम्ममाहंसु) तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म कहा है (तहा अप्पमायं अवरं) तथा अप्रमाद को अकर्म कहा है (तभावादेसओ वावि) इन दोनों की सत्ता से ही (बालं पंडियमेव) बालवीर्य या पण्डितवीर्य होता है।
भावार्थ तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है । अतः प्रमाद के होने से बालवीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डितवीर्य होता है।
व्याख्या प्रमाद : कर्म : बालवीर्य एवं अप्रमाद : अकर्म : पण्डितवीर्य
प्रमाद का अर्थ होता है-प्राणिवर्ग जिसके कारण उत्तम अनुष्ठान से रहित होते हैं, वह मद्य आदि पाँच प्रकार का है । मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा (चारित्रदूषक कथा) ये ५ प्रमाद जिनवरों ने बताए हैं। तीर्थंकरों ने प्रमाद को
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