Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
वीर्य : अष्टम अध्ययन
व्याख्या
ममत्व छोड़े, समत्व पकड़े
इस गाथा में बताया गया है कि सभी उच्च पद, स्थान या पदार्थ अनित्य हैं, इस प्रकार का विचार करके मेधावी पण्डितवीर्यसम्पन्न साधक किसी भी वस्तु में अपनी ममता न रखे । यह वस्तु मेरी है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार की ममता हो तो उसे उखाड़ फैंके । क्योंकि मेधावी मर्यादा में स्थिर रहने वाले या हिताहित विवेकशील पुरुष को कहते हैं, वह ममत्व को छोड़े, समत्व को पकड़े तथा आर्योंतीर्थंकरों के इस आर्य-मार्ग - मोक्षमार्ग को ग्रहण करे, जो कि कुर्तीर्थिकों के धर्मों द्वारा दूषित नहीं है ।
मूल पाठ
सह संमइए णच्चा, धम्मसारं सुणेत्त वा । समुट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खावपावए || १४॥
संस्कृत छाया
सह सन्मत्या ज्ञात्वा, धर्मसारं श्रुत्वा वा । समुपस्थितस्त्वनगारः प्रत्याख्यातपापकः ।।१४।।
७३१
अन्वयार्थ
( सह संम) अच्छी बुद्धि के द्वारा (सुत्त वा) अथवा सुनकर ( धम्मसारं णच्चा ) धर्म का सच्चा स्वरूप या निचोड़ जानकर (समुवट्ठिए अणगारे) आत्मकल्याण के लिए संयमपथ में उद्यत समुपस्थित अनगार (साधु) ( पच्चक्खाय पावए) पाप का प्रत्याख्यान करके पवित्रात्मा बन जाता है ।
भावार्थ
Jain Education International
धर्म के सच्चे स्वरूप या सारांश तत्त्व को अपनी निर्मल बुद्धि द्वारा या गुरुजी आदि से सुनकर जानकर ज्ञानादि गुणों के उपार्जन में उद्यत साधु पाप का प्रत्याख्यान (त्याग) करके निर्मल आत्मावाला होता है ।
व्याख्या
सद्धर्म का ज्ञान, पाप का प्रत्याख्यान पडवीर्यशील साधक के लिए सर्वप्रथम सच्चे धर्म का स्वरूप जानना आवश्यक है, तदनन्तर समस्त पापों का प्रत्याख्यान । किन्तु सद्धर्म का परिज्ञान अपनी पवित्र बुद्धि द्वारा या गुरुदेव आदि से श्रवण करके करे । धर्म का सार ग्रहण करने से पूर्व पापों का त्याग करना अनिवार्य है, अन्यथा पापों के बोझ से पवित्र बुद्धि दब Great और अपनी शक्ति (वीर्य) उल्टी दशा में बहने लगेगी ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org