Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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सूत्रकृतांग सूत्र
अर्थात् इस लोक में या देवलोक में जितने भी स्थान हैं, सब अशाश्वत ( अनित्य ) हैं, साथ ही देव, दानव, मानव आदि की ऋद्धियाँ या सुख सभी अनित्य हैं । ये सभी थोड़े समय के पदार्थ हैं, इसलिए इन पर गर्व या ममत्व नहीं करना चाहिए । इसके अतिरिक्त ज्ञातिजन, बन्धुजन, मित्र एवं परिचित सभी के साथ संवास भी aft है । कोई निश्चय नहीं है कि कब इनके साथ सम्बन्ध टूट जाएगा । एक विचारक ने कहा है
सुचिरतरमुषित्वा बान्धवैर्विप्रयोगः,
सुचिरमपि हि रन्त्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरम्, सुचिरमपि विचिन्त्यो, धर्म एकः सहाय ॥
अर्थात् -- बन्धुबान्धवों के साथ चिरकाल तक रहने के बाद सदा के लिए उनसे वियोग हो जाता है, भोगों को चिरकाल तक भोगने के बाद भी उनसे तृप्ति नहीं होती, शरीर को बहुत काल तक बहुत अच्छी तरह पाला-पोसा हो, मगर एक दिन यह नष्ट हो ही जाता है । अतः अच्छी तरह सुदीर्घकाल तक धर्म का चिन्तन एवं आचरण किया हो तो वही एकमात्र इस लोक एवं परलोक में सहायक होता है ।
इस गाथा में जो 'य' (च) शब्द है, वह धन-धान्य- द्विपद-चतुष्पद, शरीर आदि समस्त पदार्थ अनित्य और अशरण हैं, इस बात को बताने के लिए है । मूल पाठ
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एवमादाय मेहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे ।
आरियं उवसंपज्जे, सव्वधम्ममकोवियं ||१३||
संस्कृत छाया
एवमादाय मेधावी, आत्मनः गृद्धिमुद्ध रत् । आर्यमुपसंपद्येत सर्वधर्मे र कोपितम्
अन्वयार्थ
( महावी) बुद्धिमान साधक ( एवमादाय) यह विचार कर (अध्पणो गिद्धिमुद्धरे) अपनी ममत्व बुद्धि को उखाड़ फैंके ( सव्वधम्ममकोवियं) समस्त कुतीर्थिक धर्मों से दूषित (आरियं उवसंपज्जे) इस वीतरागभाषित आर्यधर्म को ग्रहण करे । भावार्थ
सभी उच्च पद या स्थान अनित्य हैं, यह विचार करके बुद्धिमान् विवेकी साधक अपने अन्तर् में जड़ जमाई हुई ममता (आसक्ति) को उखाड़ फैंके । सब कुतीर्थिक धर्मों से अदूषित इस वीतरागभाषित श्रुत चारित्ररूप आर्य (श्रेष्ठ) धर्म को ग्रहण करे ।
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।।१३।।
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