Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
७०२
सूत्रकृतांग सूत्र सरस, स्वादिष्ट एवं गरिष्ठ आहार के सेवन की ओर लगी रहती है, भिक्षावत्ति से धर्ममर्यादानुसार भिक्षा में जो कुछ भी और जैसा भी मिला है, उसमें सन्तुष्ट नहीं होता, उसकी जिह्वालोलुपता उसे बढ़िया सुस्वादु भोजन प्राप्त करने के लिए ताकताक कर ऊँचे और भावुक भक्तों के घरों से भिक्षा-नियमों की अपेक्षा करके भी लाने को प्रेरित करती है । वह उस प्रकार धर्मप्राप्त आहार को ठुकरा कर सरस स्वादिष्ट आहार पाने को उतावला हो जाता है, और लाकर व सेवन करके ही दम लेता है। साथ ही शरीर-शोभा के लिए प्रतिदिन वस्त्र धोने तथा शरीर की सफाई करने में लगा रहता है। इतना ही नहीं, शृंगार की दृष्टि से वस्त्रों को फाड़कर काटछांट करके छोटा या बड़ा भी करता रहता है, इस प्रकार की विभूषावृत्ति या स्वादलोलुपवृत्ति साधु को साधुता से कोसों दूर रखती है। साधुता सादगी में है, यथालाभ सन्तोष में है, इन्द्रियसंयम में है। तीर्थंकरों ने दशविध श्रमणधर्म (क्षमा, मार्दव आदि) के द्वारा सुशील साधु का धर्म बता दिया है। उसी पर चलना उसे शोभा देता है।
मूल पाठ कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज्ज य आदिमोक्ख । से बीयकंदाइ अभुंजमाणे, विरते सिणाणाइसु इत्थियासु ॥२२।।
संस्कृत छाया कर्म परिज्ञायोदके धीरो, विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । स बीजकन्दान् अभुजानो, विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ॥२२।।
अन्वयार्थ (धीरे) धीर साधक (दगंसि) कच्चे पानी में (कम्मं परिन्नाय) कर्मबन्ध जान कर (आदिमोक्खं) संसार से मोक्ष तक (वियडेण जीविज्ज) प्रासुक जल के द्वारा जीवन धारण करे। (से बीयकंदाइ अभुंजमाणे) वह साधु बीज, (बीजसहित वनस्पति), कन्द तथा मूल, पत्र, फल आदि का भोजन न करता हुआ (सिणाणाइसु इत्थियासु विरते) स्नान आदि से तथा स्त्रियों से दूर रहे।
भावार्थ बुद्धिशील साधक कच्चे पानी से स्नानादि करने में कर्मबन्ध जानकर संसार से मुक्ति प्राप्त होने तक प्रासुक (अचित्त) जल से ही अपना जीवन धारण करे । वह बीजकाय, कन्द आदि कच्ची वनस्पति का उपभोग न करे, तथा स्नान आदि शृगारविभूषा कर्म से एवं स्त्री आदि समस्त मैथुनकर्म से विरत रहे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org