Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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वह सुशील साधु माना जाएगा, बशर्ते कि वह स्वादिष्ट आहार-पानी आदि के लिए ताक-ताक कर अच्छे घरों में न जाए, न उन दाताओं की झूठी प्रशंसा आदि करके आहारादि ले । तब फिर यह सवाल उठेगा कि वह सुशील साधु निर्दोष आहारपानी कैसे प्राप्त करे ? कैसे जीए ? कैसे रहे ? इसके समाधानार्थ इस गाथा में बताया गया कि वह अज्ञात (जिन घरों का पहले-पीछे का उससे कोई परिचय न हो) घरों से पिण्ड (आहार-पानी आदि) ग्रहण करे, और अपने संयमी जीवन का पालन करे । ऐसे घरों से तो प्रायः अन्त भुक्तशिष्ट) और प्रान्त (बचा-खुचा फेंके जाने योग्य) रूखासूखा और नीरस आहार ही मिलेगा, परन्तु सुशील एवं अहिंसामूर्ति पाधु इसकी परवाह न करे, वह ऐसा तुच्छ आहार मिलने पर मन में दीनता न लाए और उत्कृष्ट आहार मिल जाए तो गर्व नहीं करे । समभाव से उस आहार को उदरस्थ करले । यहाँ 'अहियासएज्जा' पद इस बात का भी द्योतक है कि समभावी साधक अपने आप को इसी साँचे में ढाल ले । किन्तु अपना गुणोत्कीर्तन करके, अपना परिचय देकर, तप, चारित्र, मंत्र-यंत्रादि चमत्कार के बल पर आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास न करे क्योंकि इससे वह सुशील साधक फिर उन्हीं पूर्वोक्त दोषों से लिप्त हो जाएगा । ऐसा करके तो साधक अपनी मुक्तिहेतुक तपस्या, साधना और आराधना को बेचकर घाटे में रहेगा । कहा भी है----
परं लोकाधिकं धाम, तपः-श्र तमिति द्वयम् ।
तदेवाथित्वनिलुप्तसारं तृणलवायते ॥ अर्थात्-परलोक में श्रेष्ठ स्थान दिलाने वाले दो ही पदार्थ हैं-तप और श्रत । इनसे सांसारिक पदार्थ की इच्छा करने पर इनका सार निकल जाएगा, ये तिनके की तरह निःसार हो जायेंगे।
जैसे रस में आसक्ति न करने की बात कही, वैसे शब्द और रूप में भी तथा समस्त विषयभोगों-गन्ध और स्पर्श आदि में भी सुशील साधक आसक्ति को फटकने न दे। किस प्रकार इन पर से आसक्ति हटाए ? इसके उत्तर में एक प्राचीन आचार्य के विचार सुनिए
सद्दे सु य भद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१॥ रूवेसु य भद्दयपावएसु, चक वृविसयमुवगएसु । तुह्रण व रुद्रुण व समणेण सया ण होयव्वं ।।२।। गंधेसु य भद्दयपावएस, घाणविसयमुवगए । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥३॥ भक्खेसु य भद्दयपावएसु, रसणविसयमवगएसु । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ।।४।।
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