SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन ७०४ वह सुशील साधु माना जाएगा, बशर्ते कि वह स्वादिष्ट आहार-पानी आदि के लिए ताक-ताक कर अच्छे घरों में न जाए, न उन दाताओं की झूठी प्रशंसा आदि करके आहारादि ले । तब फिर यह सवाल उठेगा कि वह सुशील साधु निर्दोष आहारपानी कैसे प्राप्त करे ? कैसे जीए ? कैसे रहे ? इसके समाधानार्थ इस गाथा में बताया गया कि वह अज्ञात (जिन घरों का पहले-पीछे का उससे कोई परिचय न हो) घरों से पिण्ड (आहार-पानी आदि) ग्रहण करे, और अपने संयमी जीवन का पालन करे । ऐसे घरों से तो प्रायः अन्त भुक्तशिष्ट) और प्रान्त (बचा-खुचा फेंके जाने योग्य) रूखासूखा और नीरस आहार ही मिलेगा, परन्तु सुशील एवं अहिंसामूर्ति पाधु इसकी परवाह न करे, वह ऐसा तुच्छ आहार मिलने पर मन में दीनता न लाए और उत्कृष्ट आहार मिल जाए तो गर्व नहीं करे । समभाव से उस आहार को उदरस्थ करले । यहाँ 'अहियासएज्जा' पद इस बात का भी द्योतक है कि समभावी साधक अपने आप को इसी साँचे में ढाल ले । किन्तु अपना गुणोत्कीर्तन करके, अपना परिचय देकर, तप, चारित्र, मंत्र-यंत्रादि चमत्कार के बल पर आदर और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का प्रयास न करे क्योंकि इससे वह सुशील साधक फिर उन्हीं पूर्वोक्त दोषों से लिप्त हो जाएगा । ऐसा करके तो साधक अपनी मुक्तिहेतुक तपस्या, साधना और आराधना को बेचकर घाटे में रहेगा । कहा भी है---- परं लोकाधिकं धाम, तपः-श्र तमिति द्वयम् । तदेवाथित्वनिलुप्तसारं तृणलवायते ॥ अर्थात्-परलोक में श्रेष्ठ स्थान दिलाने वाले दो ही पदार्थ हैं-तप और श्रत । इनसे सांसारिक पदार्थ की इच्छा करने पर इनका सार निकल जाएगा, ये तिनके की तरह निःसार हो जायेंगे। जैसे रस में आसक्ति न करने की बात कही, वैसे शब्द और रूप में भी तथा समस्त विषयभोगों-गन्ध और स्पर्श आदि में भी सुशील साधक आसक्ति को फटकने न दे। किस प्रकार इन पर से आसक्ति हटाए ? इसके उत्तर में एक प्राचीन आचार्य के विचार सुनिए सद्दे सु य भद्दयपावएसु, सोयविसयमुवगएसु । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१॥ रूवेसु य भद्दयपावएसु, चक वृविसयमुवगएसु । तुह्रण व रुद्रुण व समणेण सया ण होयव्वं ।।२।। गंधेसु य भद्दयपावएस, घाणविसयमुवगए । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥३॥ भक्खेसु य भद्दयपावएसु, रसणविसयमवगएसु । तुह्रण व रुद्रेण व समणेण सया ण होयव्वं ।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy