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________________ ७०८ सूत्रकृतांग सूत्र उसकी हाँ में मिलाता है, ठकुरसुहाती बातें करता है, किन्तु दाता के जीवन में कोई ऐब या भूल हो तो उसे नाराजी के डर से सावधान नहीं कर सकता, ऐसा साधुवेषी व्यक्ति पेट भरने में आसक्त होकर ही यह सब प्रपञ्च करता है । शास्त्रकार कहते हैं-- ऐसा साधु साधु के वेष में है, कदाचित् साधु की कुछ क्रियाएँ भी ऊपर-ऊपर से कर लेता हो, परन्तु अन्दर से उसका जीवन भुस्से की तरह चारित्ररूपी सार से हीन, निःसत्त्व और थोथा है। ऐसा व्यक्ति आचारहीन पार्श्वस्थ-सा हो जाता है, या वह विपरीत आचार से युक्त कुशील-सा हो जाता है। अतः वह स्वयूथिक साधुओं के अपमान का पात्र हो जाता है, और परलोक में भी दुर्गति का भाजन बनता है। मूल पाठ अण्णातपिडेणऽहियासएज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । सद्देहि रूवेहिं असज्जमाणे, सव्वेहि कामेहि विणीय गेहि ॥२७।। संस्कृत छाया अज्ञातपिण्डेनाधिसहेत, न पूजनं तपसाऽऽवहेत् । शब्दैः रूप रसज्जन्, सर्वेभ्यः कामेभ्यो विनीय गृद्धिम् ।।२७।। अन्वयार्थ (अण्णापिडेणऽहियासएज्जा) साधु अज्ञात पिण्ड के द्वारा अपना निर्वाह करे। (तपसा पूयणं णो आवहेज्जा) और तपस्या के द्वारा अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा न करे, तथा (सहि रूवेहि असज्जमाणे) शब्दों और रूपों (दृश्य वस्तुओं) में आसक्त न होता हुआ (सव्वेहि कामेहि गेहि विणीय) समस्त विषय-कामनाओं से गृद्धि ----- आसक्ति हटाकर एकमात्र संयम में रत होकर रहे । भावार्थ साधु अज्ञात पिण्ड (अपरिचित घरों से लाए हुए भिक्षान्न) से अपना निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा न करे तथा शब्दों, रूपों तथा विविध प्रकार के विषयभोगों से आसक्ति हटाकर शुद्ध संयम का पालन करे। व्याख्या सुशील साधक का आचार-विचार कुशील साधु वेषधारियों के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है, अब यहाँ से उसी सन्दर्भ में उसके प्रतिपक्षी सुशील साधक के आचार-विचार के सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं ... 'अण्णातपिडेण ...."विणीय गेहि' । तात्पर्य यह है कि पिछली गाथाओं बतलाए हुए जो अग्निहोत्र तथा जलस्पर्श आदि से मोक्ष की प्राप्ति न मानता हो तथा अग्निकाय आदि के समारम्भ न करे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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