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कुशील-परिभाषा : सप्तम अध्ययन
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अपनी जान गँवा देता है, वैसे ही वह कुशील असंयमी साधक उदरपूर्ति में आसक्त होकर अपने संयमी जीवन का नाश कर देता है, अहिंसा, सत्य आदि महाव्रतों को भी वीरे-धीरे खो बैठता है और एक दिन संयमप्राणहीन खोखला साधु वेष का ढाँचा मात्र रह जाता है। शास्त्रकार कहते हैं --'अदूरए एहिइ घातमेव ।' अर्थात् वह शीव्र ही नष्ट हो जाता है । यहाँ घात (नाश) दो प्रकार का है -द्रव्यघात और भावघात । द्रव्य से अतिस्वादिष्ट, गरिष्ठ, दुष्पाच्य भोजन प्रतिदिन करने से शीघ्र ही रोगग्रस्त होकर उसका शरीर विनष्ट हो जाता है, भाव से संयमी-जीवन, महाव्रत आदि से वह नष्ट हो जाता है । स्वादलोलुपता के कारण नाना कर्मबन्धन करके वह नीच योनियों में बार-बार परिभ्रमण करता है।
मूल पाठ अन्नस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च, निस्सारए होइ जहा पुलाए ॥२६।।
__ संस्कृत छाया अन्नस्य पानस्येह लौकिकस्यानुप्रियं भाषते सेवमानः । पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च, निःसारो भवति यथा पुलाकः ।।२६।।
अन्वयार्थ (अन्नस्स पाणस्स) भोजन तथा पानी (इहलोइयस्स) एवं वस्त्र आदि इहलौकिक साधनों के लिए (सेवमाणे) एक सेवक-दास की तरह जो पुरुष (साधुवेषी) (अणुप्पियं भासति) आहारादि के दाता के अनुकूल प्रिय भाषण करता है, ठकुरसुहाती बात कहता है, (पासस्थयं चेव कुसीलयं च) वह धीरे-धीरे पार्श्वस्थ भाव (आचार-शैथिल्य) को और कुशीलभाव (दूषित संयमित्व-साधुत्व) को प्राप्त होता है। और एक दिन वह (निस्सारए होइ जहा पुलाए) भुस्से की तरह निःसारनिःसत्त्व संयमप्राण से रहित, थोथा हो जाता है ।
भावार्थ जो पुरुष (साधु वेषधारी) अन्न-पान तथा वस्त्र आदि इहलौकिक पदार्थों के लोभ से दातापुरुष को ठकुरसुहाती बातें कहता है। ऐसा व्यक्ति पार्श्वस्थ तथा कुशील बन जाता है और भुस्से के समान निःसत्त्व (थोथा) हो जाता है।
व्याख्या
साधु का वेष : परन्तु साधुत्व से रहित थोथा निःसार इस गाथा में यह बताया गया है कि जो साधु बढ़िया रुचिकर अन्न-पानी या वस्त्र आदि के लिए राजाओं के सेवक की तरह दाता की जी-हजूरी करता है,
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